परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 115वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब बशीर बद्र साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"ये जनम जनम का रिश्ता तिरे मेरे दरमियाँ है "
1121 2122 1121 2122
फइलातु फाइलातुन फइलातु फाइलातुन
(बह्र: रमल मुसम्मन् मशकूल )
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 24 जनवरी दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 25 जनवरी दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आरणीय सुरेन्द्र नाथ जी ,तरही मिसरे पर अच्छी ग़ज़ल कही आपने,बधाई स्वीकार करें आरणीय समर साहब ने गिरह लगाने का हम लोगो को अच्छा तरीका सिखाया है गिरह के मिसरे पर अब कठिनाई नहीं होती ।आभार समर साहब का
बेहतरीन ग़ज़ल जनाब सुरेंद्र जी
आ. भाई सुरेंद्र नाथ जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय सुरेन्द्र भाई, उम्दा ग़ज़ल कहने पर बधाई। ख़ास तौर पे दूसरा शे'अर बहुत अच्छा लगा।
जनाब भाई सुरेन्द्र नाथ साहिब, कामयाब ग़ज़ल हुई है, मुबारकबाद कुबूल फरमाएं
सुरेन्द्र नाथ जी अच्छी ग़ज़ल कही है आपने बहुत बहुत बधाई
श्री सुरेंद्र नाथ जी अच्छी गजल हुई बधाइयां स्वीकार करें
1121, 2122, 1121, 2122
है जो मेरे दिल की धड़कन बसी जिसमें मेरी जाँ है
कोई ये बता दे मुझको है वो कैसी और कहाँ है|
उसे याद हूँ मैं अब तक या मुझे भुला चुका वो
कोई आ गया है दिल में या वो मेरा ही मकाँ है|
तू ख़यालों में अभी तक है हसीन और कमसिन
ये अगर गुमाँ है मेरा तो बहुत हसीं गुमाँ है|
कहीं हो ना जाऊँ घायल लगे डर ये मुझको हरदम
तेरी नज़रें तीर जैसी तेरी आँख इक कमाँ है|
ले के हाथ में सभी अब यहाँ चल रहे हैं पत्थर
मेरा हो गुज़ारा कैसे मेरी फूल की दुकाँ है|
नहीं काम मेरे बस का कि मैं बात काटूँ उसकी
है शकर सा उसका लहज़ा किसी मिसरी सी ज़बाँ है |
मैं समझ सका न तुझको तू समझ सका न मुझको
ये जनम जनम का रिश्ता तेरे मेरे दरमियां है |
मौलिक अप्रकाशित
आरणीय अनीस साहब तरही मिसरे पर अच्छी ग़ज़ल कही आपने,बधाई स्वीकार करें तीसरा शेर खास तौर पर पसंद आया
रवि शुक्ला जी ग़ज़ल पसंद करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
बहुत शानदार ग़ज़ल पेश की आपने अनीस साहब। हर शेर लाजवाब
अजय गुप्ता जी ग़ज़ल तक आने और पसंद करने का बहुत बहुत शुक्रिया
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