आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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कितना भयंकर और घिनौना षड़यंत्र ! हार्दिक बधाई आदरणीय इस कथा के लिए |
बहुत आभारी हूँ आ कल्पना जी , समय निकाल इधर आने और मान बढ़ाने के लिए
एक सशक्त कथानक को अपेक्षित विस्तार मिलने से प्रस्तुतिं अत्यंत संयत हो कर उभर आयी है, आदरणीय प्रदीप जी. संवादों की अदायग़ी भी सहज प्रवाह में कथानक को सहयोग दे रहे है. ऐसी प्रस्तुतियों से आयोजन का प्रारम्भ होना कई अर्थों में आश्वस्तिकारी है. एक अरसे बाद आपका मंच पर पुनः आना आश्वस्तिकारी है. विश्वास है, आपकी उपस्थिति हमसभी सदस्यों के लिए उत्साहवर्द्धक ही नहीं, प्रेरक भी होगी. मैं इस बार आयोजन में पीछे से रचनाओं को पढ़ना प्रारम्भ किया हूँ. लेकिन कई व्यवधानों के कारण सुचारूऊ रूप से गति नहीं बन पा रही है. अतः सीधे आपकी रचना पर ही आ गया.
इस सहज प्रस्तुति के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ
आदरणीय सौरभ जी , इतना दुलार पा कर कितना हर्षित हूँ , नहीं बता सकता। महसूस जरूर कर रहा हूँ , गूंगे के गुड़ की तरह। व्यस्तताएं इतनी बढ़ जाती हैं कई बार कि लिखना तो बहुत दूर पढ़ना तक भी नहीं हो पाता। इतना मान देने के लिए हार्दिक आभार। स्नेह बनाए रखेंगे , यही आशा है।
जनाब प्रदीप नील जी आदाब,आयोजन के इफ्तिताः में इतनी लाजवाब और कमाल की लघुकथा,हमें तो इस ऊंचाई का तसव्वुर भी नहीं है, बहुत ख़ूब और नया लिखते हैं,पात्रों के नाम भी लघुकथा के सौन्दर्य को बढ़ा रहे हैं,कुल मिलाकर ये रचना लघुकथा विधा की शानदार रचनाओं में से एक है । आपकी प्रस्तुति पर देर से हाज़िर हुआ इसके लिये माज़रत चाहता हूँ,इस शानदार प्रस्तुति पर दिल की गहराइयों से दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ।
परम आदरणीय यह आपका प्यार बोल रहा है , आप नहीं बोल रहे। आप जैसे पाएदार शायर का मुझे जनाब प्रदीप नील जी कहना संकोच में डालता है। प्रिय /अज़ीज़ प्रदीप कहेंगे तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी। आप यूँ ही आशीर्वाद बनाए रखें , यही प्रार्थना है। उपस्थित हो कर रचना का मान बढ़ाने के लिए तहे दिल से शुक्रिया।
हार्दिक बधाई आदरणीय प्रदीप जी!लघुकथा बेहतरीन है!आधुनिक समाज में इस तरह के घिनौने षडयंत्र खूब बढ़ रहे हैं! साथ ही सुनील वर्मा जी की राय से मैं भी सहमत हूं कि अंतिम पंक्ति गैर जरूरी सी प्रतीत हो रही है!
बहुत धन्यवाद तेज वीर जी। आपने सुनील जी की तरह बिलकुल सही इशारा किया है। मैंने सुनील जी से जो कहा वही निवेदन आपसे भी : आप बिलकुल सही कह रहे हैं। क्लाइमैक्स तो वहीँ था बाद में कुछ कहने की जरूरत ही नहीं थी। इतना तो मैं भी समझता हूँ कि लघुकथा में एक भी फालतू वाक्य बहुत महंगा पड़ता है , भविष्य में ध्यान रखूंगा। यही दृष्टि बनाए रखिएगा।
" हलवे का घी"
वृद्धावस्था में बडे कष्ट झेल कर मरी थी, इसलिये उनसे बिछड़ने का जो दर्द उठा, उसे माँ को उसके कष्टों से मिले छुटकारे के अहसास ने सहलाया था. उनके कमरे के सामने से गुजरते बरबस आँखे भर आई.अब गठरिया कौन सहेजेगा ,मकई का आटा,मूँग बडी,निंबू अचार ,कितना कुछ होता ,अपने आँचल से कोरो को पोछने हुई कि भाभी ने आवाज लगाई.
"आ जाओ बहना! खाना तैयार है. दामाद जी वापसी कि जल्दी मचा रहे है. आओ! आज सब कुछ तुम्हारी पसंद का बनाया हैं. पुलाव, भरमा बैगन, आटे-गुड का तर घी हलवा."
किंतु उसकि की जिव्हा तो चिरपरिचित स्वाद के लिये व्याकुल थी.
" अरे!चलो भी देर हो रही है जी मुझे दफ़्तर भी जाना है."
देहरी पार कर कार मे बैठने को हुई तो भैया ने हस्ताक्षर के लिये कागज आगे कर दिए . भरे नेत्रो से बस "स्नेह" ही लिख पाई कि...
कार अपने मंजिल को निकल पडी.
मौलिक एवं अप्रकाशित
आ.रहिला जी शुक्रिया आपका
बढ़ीया प्रयास आदरणीय नयना जी । पर कथा में थोड़ी सहजता की कमी लगी । सादर
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