(1). श्री सुनील वर्मा जी
महानायक
रास्ते में भीड़ देखकर उसके कदम ठिठके। जिज्ञासा ने बालमन पर दबाव दिया। क्या हो रहा है यह जानने के लिए वह अपने से दोगुनेकद वालों के बीच बमुश्किल जगह बनाता हुआ उनके बनाये घेरे में आगे जा पहुँचा। भरे बाजार में लड़की को छेड़ते हुए युवकों कोदेखकर उसने बिना कुछ सोचे समझे उनकी तरफ पत्थर दे मारा। बदले में सिर से बहते खून को रोकने का प्रयास करते हुए उस युवकका थप्पड़ पड़ा गाल पर। अवसर देखकर लड़की बच निकली। मनोरंजन का अवसर जाते देख धीरे धीरे भीड़ भी गायब होने लगी।
लड़का गाल सहलाते हुए घर पहुँचा। पिता ने वजह पूछी तो नजरें नीची किये हुए अबोध ने पूरी बात कही। सुनकर पिता के सुलगतेहुए शब्द बाहर निकले "और भी तो लोग थे वहाँ, तुझे ही जरूरत थी क्या महानायक बनने की, मर मरा जाता तो !!"
अगले ही पल वह महानायक अपना दूसरा गाल भी सहला रहा था।
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(2). सुश्री सीमा सिंह जी
दुनियादारी
“क्या बात है बेटी? जबसे ससुराल से आई है, ना तो दामाद जी ने तेरी कोई खैर खबर ली है, और ना ही तू खुद भी कोई बात करती है. सब ठीक तो है?” कई दिन की ऊहापोह के बाद, मालती ने बेटी से साफ़-साफ़ बात करने का निश्चय कर, पूछ ही लिया.
बचने की कोई राह ना देख, बेटी ने भी मन का हाल कह डाला, “माँ मैं वापस नहीं जांउगी अब वहाँ.”
“ये क्या बोल रही है तू! क्यों?”
“माँ, इनके भाभी के साथ संबंध हैं... मैंने इनको खुद अपनी भाभी के कमरे से रात-विरात निकलते देखा है,” बेटी का दर्द शब्दों से छलक पड़ा. “और पूछने पर बेहयाई से उत्तर मिला कि भाई फौज में हैं तो भाभी का ख्याल भी तो मुझे ही रखना होगा...”
“ओह, बस ये बात है?” मालती ने ऐसे कहा जैसे सामान्य सी बात हो.
“ये छोटी बात है, माँ?” खीज कर बेटी ने कहा.
“इतना बड़ा घर है उनका, कैसे तेरा रिश्ता उस घर में किया है मैंने... समझदारी से काम ले! इस घर की तकलीफों, और वहाँ के सुख के बारे में तो सोच!” माँ ने समझाया.
“उनकी बदचलनी सहन करना समझदारी है, माँ?” बेटी ने दुःखी स्वर में कहा.
“हाँ, बेटा, समझदारी ही है, ये. अगर मुझे भी मेरे समय में कोई समझाने वाला होता, तो अपने पति को छोड़ मैं भी यूँ कष्ट भरा जीवन बिताने को मजबूर ना होती...
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(3). सुश्री कांता रॉय जी
तमाशबीन
वह अपने सीधेपन से असंतुष्ट होकर , करवट बदल , नया चेहरा अख्तियार कर रहा है । जब नाॅर्मल आदमी था तब वह भीड़ का हिस्सा हुआ करता था , लेकिन अब भीड़ का हिस्सा नहीं है । चरित्र में उग आये टेढ़ेपन की वजह से भीड़ में अलग , अपनी तरह का वह अकेला व्यक्ति है । पिछले कई दिनों से वह कूड़े - करकट का एक पहाड़ खड़ा करने में लगा हुआ था जो आज पूरा हो गया । उसके मुताबिक पहाड़ बहुत ऊँचा बना था । हाथ में एक झंडा लेकर उस पर चढ़ गया । कुछ लोग उसकी तरफ ताकने लगे। उसे देख कर लोगों के चेहरे पर सवालिया निशान उभरने लगे । धीरे -धीरे लोग सवाल बन गये ।शलाका पुरूष .... मिथक पुरूष, ढोंगी इत्यादि अलग - अलग तरह के नामों से सम्बोधित कर , कुछ -कुछ कह , सवाल बने लोग अब अपने - अपने भीतर की तमाम गन्दगी उलीच रहे थे ।
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(4).सुश्री रीता गुप्ता जी
तमाशबीन
एक घंटे पहले ही उसे पता चला कि पिताजी की तबियत अचानक बहुत ख़राब हो गयी है. संयोग से तुरंत ही ट्रेन थी सो भागा-भागा रेलवे स्टेशन आ गया और जनरल बोगी का एक टिकट किसी तरह कटा ट्रेन में चढ़ गया. बोगी में घुसते उसने एक सूकून भरी सांस लिया कि अब वह कम से कम पिताजी के पास पहुँच जायेगा. बोगी पहले से ही खचाखच भरी हुई थी. हमेशा एसी कोच से सफ़र करने वाले को आज मजबूरी में यूं भेड-बकरियों के जैसे ठुंसे जाना पड़ रहा था. उसने चारों तरफ का मुआयना किया. ऊपर नीचे साइड के सभी बर्थपर लोग एक दुसरे पर मानों चढ़े बैठे हुए थे. कोई आधा घंटा एक पैर पर खड़े रहने के बाद उसने बर्थ पर बैठे एक लड़के को चाशनी घुले शब्दों में कहा,
“बेटा मैं अर्थराइटिस का मरीज़ हूँ क्या मुझे थोड़ी देर बैठने दोगे ?”
उसने दो-तीन बार दुहराया पर उसने मानों सुना ही नहीं. फिर उसने सामने बर्थ पर बैठे व्यक्ति को भी कहा, साइड वाले चारों लड़कों को भी कहा. सर उठा उसने आस भरी निगाहों से ऊपर बर्थ पर पसरे भाईसाहब को भी देखा, जो नज़र मिलते ही मानों नींद में झूलने लगे. उस से सटे खड़े व्यक्ति की दुर्गन्ध बर्दास्त की सीमा पर कर चुकी थी. टाँगे सच में अब दुखने लगी थी. भीड़ में फंसा खुद को कितना बेबस और लाचार महसूस कर रहा था कि तभी शायद कोई स्टेशन आया. ऊपर बर्थ वाले भाई साहब की तन्द्रा टूटी और वो उचक कर नीचे कूद पड़े. इससे पहले कि कोई कुछ सोचता वह ऊपर विराजमान हो चुका था. थोड़ा टाँगे फैला उसने अंगडाई लिया कि देखा भीड़ का चेहरा तब तक बदल चुका है और कुछ देर पहले तक जहाँ वह खड़ा था वहां एक गर्भवती महिला खड़ी उन्ही नज़रों से मुआयना कर रही है जिन नज़रों से वह कुछ पल पहले कर रहा था. इस से पहले की उस महिला की आस भरी निगाहों का सफ़र उस तक पहुंचे उसने अपनी आखें बंद कर ली.
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(5). श्री पंकज जोशी जी
लालच (तमाशबीन)
कंपनी बोर्ड की मीटिंग चल रही थी जिसको एम डी साहब चेयर कर रहे थे और सबके सम्मुख विभोर जो कंपनी का जनरल मैनेजर है मीटिंग का एजेंडा पढ़ रहा था ।तभी एम डी साहब के मोबाईल पर व्हाट्स एप्प वीडियो फ़्लैश हुआ ।
" अरे जी ०एम्० साहब कब तक एजेंडा सुनाते हुए इन लोंगो को बोर करेंगे । आइये हम सब थोडा मनोरंजन कर लें । "
" पर सर कंपनी के लिए एजेंडा इम्पोर्टेन्ट है " विभोर ने उन्हें टोकते हुए कहा ।
" जो मैं दिखाने जा रहा हूँ वह उससे भी अधिक महत्वपूर्ण हैं , उसको देखने के बाद आपकी जिंदगी भी बदल जानी है । पर उससे पहले मैं आप लोंगो से पहले कुछ पूछना चाहता हूँ - यह कंपनी आप लोंगों के लिये क्या मायने रखती है ? "
अचानक कमरे में सन्नाटा पसर गया ।
" अरे आप सब तो अनुभवी लोग है अच्छा विभोर जी आप ही बताइये ? "
विभोर अपनी सीट से उठा और आत्मविश्वाश से बोला
" सर कंपनी हमारी माँ है । "
" क्यों और कैसे ? " बॉस ने पूछा ।
" सर यह हमें रोजी-रोटी देती है । " कहते हुए वह अपनी सीट में वापस जा बैठा ।
" गुड मुझे आपसे ऐसी उम्मीद थी । " एम डी साहब बोले ।
और अपने फोन को प्रोजेक्टर से अटैच कर वीडियो दिखाने को कहा ।
" चलिये आज हम सब रोजी से मिलते हैं ।"
प्रसन्न मुद्रा में विभोर ने प्रोजेक्टर को ऑन किया ।
होटल के कमरे में विभोर ने एक लिफाफा अपनी जेब से निकाला लड़की ने देखा उसकी फोटो खींची और पर्स से एक रूपये की गड्डी लिफ़ाफ़े के साथ उसके हाथ में रख दी । जैसे ही लड़की मोबाइल अपने पर्स में रखने वाली थी तभी उसने लड़की जैकेट की चेन की ओर हाथ बढ़ाया जिसे लड़की ने बीच में ही रोक दिया टेंडर की कॉपी के लिए पैसे आपको दे दिये गये है । इससे आगे बढ़ना चाहते हैं तो कंपनी के नये प्लांट का ब्लूप्रिंट दिखा दीजिये । साहब ना आप कही जा रहें हैं ना मैं ।
वीडियो समाप्त हो गया । विभोर सिर से पाँव तक पसीने से भीगा हुआ था । हाथ काँप रहे थे ।
" सर मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई " कहते हुए जैसे ही वह उनके क़दमों पर गिरना चाहा ...........
तभी बॉस की चीख ने हाल में पसरे सन्नाटे को तोड़ दिया ।
" हरामखोर अपनी ही माँ के साथ बलात्कार करता है । जिस थाली में खाता है उसी में छेद " कहते हुए उसने इंटरकॉम का बटन प्रेस किया - " प्लीज सैंड द सिक्योरिटी एंड द लेडी इन "
अगले पल बॉस ने वीडियो वाली लेडी का परिचय अपने मैनेजमेंट से करवाया ।
मीट योर न्यू जी० एम० मिस रोजिटा
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(6). श्री सौरभ पाण्डेय जी
तमाशबीन
खूब मचे हो-हल्ले के कारण वह उठ गया. बिस्तर से निकल कर वह सीधा भागता हुआ बालकनी में आया. बाहर उसे सिर्फ़ सिर ही सिर दिख रहे थे. उसके सबसे ख़ास दोस्त के बाबूजी कल रस्सी से झूल गये थे. इसबार के ओलों और लगातार होती बेमौसम की बारिश ने उसके दोस्त के बाबूजी से क्या से क्या करवा दिया था ! आज दोस्त की माँ से मिलने एक कद्दावर नेताजी आये थे.
वह कल से चुपचाप सारी गतिविधियों को देख रहा था. तभी एक चीखती हुई आवाज़ में एक नारा उठा जो आये हुए नेताजी की शान में लगा जयकारा था. उस भीड़ में शामिल कई अनचीन्हे लोगों ने पूरे जोश में उस नारे को दुहराया.
उसका दोस्त अपने से दो साल छोटी बहन के साथ अपनी माँ की गोद में चिपका हुआ बड़ी-बड़ी आँखों से सबकुछ होता हुआ देख रहा था. एक आदमी उसकी माँ को बार-बार समझा रहा था, ’मुँह खोल दे सत्तो, मुँह खोल दे, नेता जी मेहरबान हैं, पूरी थैली खोल देंगे..’
’ऑफ़िस-ऑफ़िस गिड़गिड़ाते हुए जब वो घूम रहे थे, तब तो किसीको उनकी परवाह नहीं थी ? आज आये हैं थैली का मुँह खुलवानेऽऽ.. ?’ - विस्फारित आँखों से मानों आग उगलती हुई दोस्त की माँ ने लगभग चीखते हुए कहा.
वह घबरा कर बालकनी से वापस कमरे में आ गया. दीवार पर लटके कैलेण्डर में राष्ट्रपिता की मुस्कुराती हुई जगत-प्रसिद्ध तस्वीर थी. छत से लगे पंखे की हवा से कैलेण्डर के साथ वह तस्वीर भी बार-बार हिल रही थी.
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(7). सुश्री नयना (आरती) कानिटकर जी
इंसानियत की पीडा
वह जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहता था ताकि अपनी गर्भवती पत्नी को थोड़ा घुमा लाए। कई दिनों से दोनो कही बाहर नही गए थे। ऑफ़िस से लेपटाप ,पेपर आदि समेटकर वह लगभग भागते हुए प्लेटफॉर्म पर पहुँचा।तभी तेज गति की लोकल उसके सामने से निकल गई। उफ़ अब सारा वक्त जाया हो जायेगा ।
अचानक उसकी नजर प्लेटफ़ॉर्म की सीढीयों के नीचे गई। अच्छी खासी भीड़ जमा थी वहां। कुतुहल वश वह भी पहुँच गया।
अरे! यह क्या ये तो वही भिखारन है जो लगभग रोज उसे यहाँ दिख जाती थी। पता नही किसका पाप ढो रही थी बेचारी। आज दर्द से कराह रही थी। शायद प्रसव- काल निकट आ गया था। "
सहसा पत्नी का गर्भ याद कर विचलित हो गया।
भीड़ मे खड़े स्मार्ट फ़ोन धारी सभी नवयुवक सिर्फ़ विडिओ बनाने मे व्यस्त थे।"
" जितने मुँह उतनी बातों ने ट्रेन के शोर को दबा दिया था।"
तभी एक किन्नर ने आकर अपनी साड़ी उतार उसको आड कर दिया।
" हे हे हे... ये किन्नर इसकी जचकी करवाएगा।"
धरती से प्रस्फ़ुटित होकर नवांकुर बाहर आ चुका था। किन्नर ने उसे उठा अपने सीने से लगा लिया।
अब सिर्फ़ नवजात के रोने की आवाज थी। एक जीवन फिर पटरी पर आ गया था।
दोयम दर्जे ने इंसानियत दिखा दी थी, भीड़ धीरे-धीरे छटने लगी।
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(8). श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
"क़ौमी एकता का सिंहासन"
'क़ौमी एकता सप्ताह' पर आयोजित मशहूर चित्रकारों की शासकीय रेखाचित्रकला प्रदर्शनी दर्शकों के लिए तरस रही थी। शिक्षा विभाग के सख़्त आदेश पर शहर के प्रतिष्ठित विद्यालयों के कक्षा बारहवीं के छात्रों को अवलोकनार्थ वहाँ भेजा गया। पंक्तिबद्ध छात्रों को देखकर चित्रकारों के चेहरे खिल गये । क्रम से रेखाचित्रों का अवलोकन करने के बाद एक विशेष रेखाचित्र को देखकर कुछ छात्र टिप्पणियाँ करने लगे।
अकरम को कोहनी मारते हुए शिवम बोला- "देख, इस सिंहासन के दोनों तरफ़ पहिये जैसी भुजाओं और टांगों से पैरदान तक हमारे धरम का चिन्ह 'ऊँ' (ओंकार) बना है, बाकियों का टेक पर और अगल-बगल में।"
"हां, लेकिन है तो सबसे नीचे न!"
"अबे, जो भी इस सिंहासन पर बैठेगा यानी इस देश में जो रहेगा, वह पहले हमारे धरम को चरण वंदन करेगा, समझे!"
"अब तू भी समझ ले, आराम-सुकून की जगह पर मेरे धरम का चिन्ह 'आधा चाँद व तारा' बना हुआ है, दुनिया में छाया हुआ है!" - अकरम ने सिंहासन की टेक (बैक) पर उँगली रखते हुए शिवम से कहा।
तभी डेविड बोला - "लेकिन घिरा हुआ है हमारे धरम चिन्ह से, देखो टेक के दोनों तरफ़ ये 'क्रॉस' के निशान!"
फिर सुरजीत ने हस्तक्षेप करते हुए कहा- "वाहे गुरु की कृपा, हमारा 'निशान साहिब' तो टेक पर सबसे ऊपर बनाया गया है, क्या बोलते हो इसके लिए, बताओ?"
"मतलब इस सिंहासन पर बैठने वाले के सिर पर भारी, हा हा हा.."- एक शरारती छात्र बोल पड़ा।
उस रेखाचित्र को बनाने वाला चित्रकार चुप्पी साधे हुए हैरत से नई पीढ़ी के विचार सुन रहा था। कुछ शिक्षक भी सुन रहे थे, लेकिन मोबाइल पर बातचीत करने या फोटो लेने में व्यस्त थे।
तभी मुख्य शिक्षक ने छात्रों से कहा- "पल्ले पड़ा कुछ? चलो रे, हो गई फारमेलटी!"
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(9). श्री विजय जोशी जी
दोहराव
'मैं द्रोपदी नहीं हूँ। जिसे तुम इस तरह सरेआम अपमानित करते रहेंगे और मैं सहती रहूंगी।'
मैं तुम्हारी पत्नी हूँ, सम्पत्ति नहीं! जुगनू ही सहीं चांद नहीं, परन्तु स्व प्रकाशीत हूँ। किसी पर आश्रित नहीं हूँ।'
घर के झगड़े पर परिवार मौन, पड़ोसी मौन ।
मौहल्ले में एक एक घर से सदस्य 'मैदान-ए-जंग' में जमा हो रहे थे, पर मूक मूद्रा सबका गहना बनता जा रहा था। रानी का साहस देख एक बूढ़ी काकी ने हिम्मत जूटाई।
जैसे ही वह विरोध दर्ज कराने गई। सब सहते हुवे भी रानी ने काकी से कह दिया - 'काकी यह हमारे घर का मामला है। हमारे बीच ना ही बोलो तो, ठीक रहेगा। भली बनने की कोशिश न करो।'
तमाशाबीन से ऊपर उठने वाली काकी का तमाशाबीन ही बने रहना, उसके सम्मान के लिए ठीक है। पर वह अपमानित होकर भी फिर कोशिश में जूट गई। 'अपनी कहानी अब परिवार में नहीं दोहराने देगी।'
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(10). श्री डॉ विजय शंकर जी
आदमी , एक तमाशबीन
वीकेंड था , हम तीनों घर में बैठ कर पुरानी फिल्म मुग़ल-ए-आज़म देख रहे थे।
फिल्म ख़त्म होने पर रवि ने अनारकली के कैद किये जाने दृश्य को याद करते हुए कहा , " क्या डायलॉग है , दिलीप कुमार का , अनारकली कैद कर ली गई ,और हम देखते रह गए ," फिर थोड़ा रुक कर बोला , " उस पर पृथ्वीराज कपूर का डायलॉग भी जबरदस्त , " और तुम कर भी क्या सकते थे " .
डायलॉग की गम्भीरता को समझाते हुए दिनेश ने कहा , " बात तो सही है यार ,हुकूमत के आगे कोई कर भी क्या सकता है , वह चाहे राजकुमार ही क्यों न हो ......... "
रवि ने भी हाँ में हाँ मिलाई , " सिर्फ एक तमाशबीन बन कर देख सकता है. हुकूमत हुकूमत होती है यार , आदमी तमाशबीन ही रहता है उसके सामने "
दिनेश ने फिर कुछ सोचते हुए कहा , " हाँ , पर जब हुकूमतें लड़खडातीं हैं , गिरने लगती हैं और गिर जातीं हैं , तब भी आदमी देखता ही रहता है , तमाशबीन बन कर।"
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(11).श्री डॉ शरदिंदु मुकर्जी जी
तमाशबीन
कर्....कर्....करात्...........
आरी के आखिरी वार से बूढ़ा देवदार दम तोड़ता हुआ धराशायी हो गया. अंधेरे में जंगल की आह दूर तक सुनाई दी. त्रिशूल और नंदादेवी के शिखर पर चाँदनी कँपकँपा गयी. शिखर ध्यानमुद्रा में नि:श्चुप थे.
ठीक उसी समय दिल्ली सहित दुनिया के कितने ही शहरों के राजपथ और गली-कूचों में न जाने कितने असहाय, असुरक्षित बहू, बेटी और बच्चों का शीलहरण हुआ.
हिमालय से लेकर हमारे ‘सभ्य’ समाज के शिखर पर आसीन चमकता हर कुछ, हर कोई तमाशबीन बना बैठा रहा – ज़िंदगी अपने ढर्रे पर अपने ही अंदाज़ में लुढ़कती रही किसी क्रांति की तलाश में.
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(12). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी
तमाशबीन
नव विवाहिता बहु शिखा और उसकी माँ का दनदनाते हुई कमरे में चले जाना रामेश्वर जी को हैरान कर गया। उसके आने का कारण वे खोज रहे थे की राजेश ने आकर सुचना दी :
"पिताजी, मैं और शिखा अब उसके घर में ही किराये से रहेंगे। हमने यह फैसला आपसी सहमति से लिया हैं।"
"लेकिन बेटा,इसका बिरादरी के समक्ष तुम पर असंख्य आरोप लगा तलाक का फैसला लेना ,इतना बड़ा हंगामा करना ,वो सब क्या था?"
"छोड़िये पिताजी ,वो बाते पुरानी हो गयी।मेरा घर बस रहा हैं।आपको खुश होना चाहिए।"
बेटे के व्यवहार से व्यथित हो स्वयं ही बुदबुदा उठे:
"तुम्हारे चरित्र पर इतने लांछन और हमारी परवरिश का तमाशा तुम सर झुकाये तमाशबीन की तरह देखते रहे मात्र हमसे पीछा छुड़ाने की खातिर !"
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(13). श्री तस्दीक अहमद खान जी
फ़रेब (तमाशबीन )
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शहर के मशहूर प्राइवेट हॉस्पिटल के काउंटर पर भीड़ लगी हुई है ,हॉस्पिटल संचालक और विजय के बीच पेमेंट को लेकर बहस चल रही है ,बहस तकरार में तब्दील होती इस से पहले ही पुलिस बुला ली जाती है ,मीडिया वाले भी पहुँच जाते हैं । पुलिस को देखते ही हॉस्पिटल संचालक कहता है , इंस्पेक्टर साहब यह जनाब एक लाख का पेमेंट दिए बगैर अपने परिचित की लाश लेजाना चाहते हैं। ....... धीरे धीरे वहां तमाशबीन की तरह भीड़ इकठ्ठा हो जाती है ।
इंस्पेक्टर कुछ बोलता उससे पहले ही विजय सच्चाई बयान करते हुए कहने लगा। ...... हॉस्पिटल वालों ने दो दिन किसी ज़िंदा इंसान का नहीं बल्कि एक मुर्दे का इलाज किया है , इस से पहले मेरे एक दोस्त के साथ ऐसा तमाशा हो चुका है , यह लोग मरीज़ को वेंटीलेटर पर लिटा कर ,आई सी यू में रखते हैं और मरीज़ के घर वालों को भी नहीं मिलने देते हैं , इन लोगों ने मेरे साथ भी ऐसा ही किया है ।
विजय की बात सुनकर इंस्पेक्टर बोल पड़ा। .... तुम्हारे पास इस का क्या सुबूत है ?
विजय ने फ़ौरन अपनी जेब से दो दिन पहले का शहर के दूसरे प्राइवेट हॉस्पिटल का डेथ सर्टिफिकेट निकाल कर दिखा दिया । .......
तमाशबीन की भीड़ में अब विजय नहीं बल्कि हॉस्पिटल संचालक तमाशा बना हुआ लग रहा था।
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(14). सुश्री बबिता चौबे जी
तलाश
" अरे , कौन हो तुम ? मेरे घर में क्या कर रहे हो ? मेरे बच्चे कहां है ? "
" अरे , कौन से बच्चे ? मुझे क्या पता ! आप कौन हो ? और ये घर तो अब मेरा है ! "
" तेरा घर ? मेरे घर को अपना बनाकर मुझसे ही पूछ रहा मेैं कौन और तू आया कहाँ से ? "
" मुझे कुछ समझ नही आ रहा है कि तुम क्या कह रही हो , आखिर कौन हो ? "
" अरे , मैं हूँ माँ , और यह मेरा घर है , पर तूने मेरे में घुसपैठ करके घर को तबाह कर दिया । बता, बता , मेरे आँखों के तारे कहां हैं ? "
" अरे आप ही माँ हो ? मैं खुद नही आया यहाँ , आपके बच्चे ही लाये है मुझे , और अब वे मेरे बच्चे झुठ ,कपट , छल ,लालच और बेईमानी के साथ मिलकर खुब खेल रहे हैं , मौज - मस्ती कर रहे हैं ।
" नही , नहीं , मेरे बच्चे बहुत संस्कारी है । श्रवण कुमार है । तू झूठ बोल रहा है ।"
" नही माँ , अब वे वैसे नहीं रहे है । देखो , देश में बढते वृद्धाश्रम , नारी निकेतन, विधवा आश्रम , अनाथालय , माँ , देखो , कहां गए रामकृष्ण , हरिश्चंद्र , श्रवण कुमार सब स्वहित में लगे है । "
" ओह यह सब नही , नही , मेरे बच्चे ऐसे.. जा रही हूँ , अपने लिये अनाथालय ढूंढने । पर ये तो बताओ मेरे घर में पैर जमाकर बैठे तुम कौन हो ? "
" हा हा हा हा , तुम्हारे बच्चो के दिल दिमाग पर राज करने वाला , भ्रष्टाचारsss ! हूं मै भ्रष्टाचारssss ! "
मां भारती अब लाचार थी , बुझे हुए मन लिये डगमगाते कदमों से विदा हो गई ।
हाॅल तालियों की गड़गड़ाहट से गुँज उठी ।
कोने की कुर्सियों पर कलाकारों की खरीद फरोख्त की लिस्ट लेकर थियेटर मालिक अपने व्यवसाय में अब तक व्यस्त था ।
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(15). सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी
तमाशबीन
"लगता है सामने वाले मकान में आज फिर कुछ लफड़ा हुआ हैI चार पांच पुलिस वाले मोटर साईकिलों में आये हैं I" चार नंबर बंगले वाले मेहता साहेब ने कार धोते शर्मा जी से धीरे से कहा I
एक नंबर वाले शर्मा जी मेहता साहब के पास आ गए "हाँ ,मैंने भी देखा ऊपर बालकोनी से I तभी गाडी धोने के बहाने यहाँ खड़ा हूँ Iपिछले हफ्ते भी तो पुलिस वाले आये थे जीप में , वाइफ बता रही थी "I
" माँ बाप और एक जवान बेटी है Iशादी शुदा ,तलाकशुदा या कुंवारी ,कुछ पता नहीं I देहाती किस्म के लोग हैं , बेटी भी दबंग लगती है I"मेहता साहब ने अपना ज्ञान साझा किया शर्मा जी से I
"दबंग या फूहड़ ?, कैसे कैसे लोग आकर बस गए हैं हमारी इस सभ्य कॉलोनी में "Iशर्मा जी ने मुहँ बिचकाया I
आस पास के घरों से भी तीन चार लोग आ गए थे जिन्हें अचानक बगीचे में पानी देने या गाड़ी धोने का काम याद आ गया था I
"लड़की करती क्या है ?" शर्मा जी ने धीरे से पूछा I
"झुग्गी के बच्चों के बीच काम करती है I समाज सेविका है Iवैसे ऐसे मुखौटे गलत काम करने वाले भी आजकल ओढ़े रखते हैंI पता नहीं क्या चल रहा है ?"
" मेहता साहब गेट के सामने बेंच पर बैठने ही जा रहे थे कि फिर सतर्क हो गए I
सामने के घर से लड़की चार पाँच पुलिस वालों के साथ बात करती बाहर निकल रही थी I पीछे उसके पिता थे I टोह लेती चार पाँच जोड़ी आँखे कुछ समझ पातीं ,उससे पहले पुलिस वालों के साथ बाइक में बैठ वो चल दी I
हताश मेहता साहब से अब रहा नहीं गया I घर के अन्दर लौटते पिता को आवाज़ लगा दी I
" भाई साहब ,सब ठीक है ना ? पिछले हफ्ते भी पुलिस वाले आये थे I हम पडौसी हैं ..कोई समस्या.." I
" अरे नहीं " बात बीच में काट दी उन्होंने " कोई समस्या नहीं ,I ये सब तो नीता के दोस्त हैं , बैच मेट I एक हादसे में पैर कटने से इसे पुलिस की ट्रेनिंग बीच में छोडनी पड़ी थी Iघुटने के नीचे दाँया पैर नकली है I पर हारी नहीं ,दिन रात लगी रहती है झुग्गी के बच्चों को संवारने में I इसके दोस्त भी मदद करते हैं I" आवाज़ का गीलापन साफ़ छिपा गए वो I
"जी ..जी " गले में पता नहीं कहाँ आवाज़ अटक गई थी मेहता साहब की I
तमाशे की आस में फूला गुब्बारा अब फूट चुका था I गाड़ियों, बागीचों के बाद पानी पानी होने की बारी, अब एक दूसरे से आँखे चुराते तमाशबीनों की थी I
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(16).सुश्री नीता कसार जी
"बलि "
तय समय पर गाँववासी ठाकुर के घर पर इकट्ठा हो गये,कोई नही जानता उन लोगों के बीच पशु प्रेमी और पुलिस वाले भी सादे भेष में मौजूद है। बडी मन्नतों के बाद ठाकुर के घरमें,किलकारी गूँजी । सब के सब चहक रहें थे, बस उदास था तो ठाकुर का बेटा कल्लू,उसकी खुशी रात में माँ,बाबा की कानाफूसी सुन कपूर बन उड़ गई । जैसा नाम वैसा रूप,शिशु को देख सब खुश होकर कहते मैंदा की लोई है लल्ला ,मन में उठ रहे सवालों के जवाब उसके पास नही थे ।आज मन्नत पूरी करने का दिन आ गया ,सबके मन में यही सवाल था, बच्चे के पैदा होने की खुशी ठाकुर वादा पूरा करेंगे। आँगन के बीचोंबीच पूजा विस्तारी गई ,पूजा के पास परिजनों के बैठने की व्यवस्था की गई,साथ में ही नन्हा सा बकरी का बच्चा बँधा था जिसे तिलक टीका लगाकर माला पहनायी गई
"कमज़ोर मन के लोग बलि के समय अपना मुँह,आँखें हथेली से ढंक लें चीख़ शुभ नही होती"।
अचानक लोगों की चीख़ निकलते निकलते बची ,मुँह खुला का खुला रह गया।
देखा तो बच्चे के वज़न के कुम्हड़े को तलवार के वार से दो फाड़ कर दिया गया ।बकरी का बच्चा टुकुर टुकुर देख रहा था।
ठाकुर मुस्कुरा कर बोल पड़े , लो कर लो बात बूंद भर ख़ून नही बहा ।
'बलि के दिन लद गये, जश्न शुरू किया जाय'।
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(17). श्री डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी
"तमाशबीन
छोटा सा मजमा लगा था. सड़क के किनारे सफ़ेद चादर से ढकी लाश पडी थी . चादर पर तरह-तरह के कुछ नोट व चंद सिक्के पड़े थे . एक गन्दा सा आदमी लाश के सिरहाने घुटनों के बल बैठा जार-जार रो रहा था –‘माई –बाप यह मेरा जवान बेटा था . इसे किसी काली बीमारी ने खा लिया . सारे पैसे इसके इलाज मे फुंक गये . आज मैं इस हालत में नही हूँ कि इसकी माटी को आग लगा सकूं . माई-बाप आपका ही सहारा है.
लोग आते कुछ पैसे डालते और चले जाते .कोई देर तक न रुकता. पर एक तमाशबीन टलने का नाम नही ले रहा था . वह गंदा आदमी उसे बार-बार देखता और सहम जाता. आखिर उससे रहा नहीं गया . उसने सन्नाटा देखकर तमाशबीन से तल्ख़ लहजे में कहा –‘यहाँ कोई तमाशा नहीं हो रहा है, तुझसे एक चवन्नी तो निकली नहीं और यहाँ धूनी रमा कर बैठ गया. चल जा अपना काम कर.’
तमाशबीन व्यंग्य से मुस्कराया –‘कल सरोजिनीनगर के चौराहे पर तुम अपनी माँ की लाश के साथ थे. वह भी लम्बी बीमारी से मरी थी और तुम्हारे पास पैसे नही थे.’
गंदा सा आदमी सकते में आ गया . उसने घबरा कर पूंछा –‘आप कौन हैं भाई, पुलिस तो नहीं--- और तुम्हे यह सब कैसे पता है ?’
तमाशबीन मुस्कराया –‘मेडिकल कालेज से चंद पैसो में लावारिस लाश खरीदकर ऐसा ढोंग करना आसान धंधा है . कल से ट्रांस गोमती में तुम्हारी सूरत नहीं दिखनी चाहिए. समझे’
गंदा सा आदमी हाथ जोड़कर खड़ा हो गया – ‘सरकार जब आप इतना जानते है तो क्यों मेरी रोजी-रोटी पर लात मार रहे हैं ?’
‘मैं तुम्हारी रोजी रोटी पर लात नही मार रहा.’-तमाशबीन ने फुंकारते हुए कहा- ‘पर यह इलाका मेरा है .’
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(18). श्री डॉ टी आर सुकुल जी
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(19). सुश्री जानकी वाही जी
*गूंगे*
हवा में ताज़े खून की गन्ध बिखरी हुई है।लग रहा है आसमान चीलों से भर गया है।
धप... धप ... रैपिड फ़ोर्स की कदमताल डर कम करने की बजाय बढ़ा रही है।
इस विद्या के मन्दिर में अभी भी सब कुछ है।ऊँचा बुर्ज,लम्बे गलियारे,जग प्रसिद्ध पुस्तकालय और चौड़े आच्छादित रास्ते। नहीं हैं तो यहाँ चहकने वाले परिन्दे, लम्बी-लम्बी बहसें,गम्भीर मुद्दे और बेबाक ठहाके।
"छुप कर पथराई आँखों से क्या देख रहे हो ? सोचने और खामोश रहने से कुछ नहीं होने वाला ?"
चिहुँक कर ज्ञान ने अँधेरे को घूरा।
"कौन हो तुम ?" भय से उसे अपनी आवाज़ ही अज़नबी सी लगी।
"न मैं महामहिम हूँ न शासन प्रतिनिधि। इस देश का अदना सा चरित्र हूँ।"
ज्ञान ने भूख से कुलबुलाती अंतड़ियों को हाथ से दबाया।कर्फ्यू के बाद से एक दाना भी नसीब न हुआ था।
"तुम्हारी बात कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ ।सामने आओ ?"
"दोस्त !मेरी छोड़ो, तुम नायक तो कभी बन नहीं पाये।इस जीवन मंच पर झूठा अभिनय ही कर लेते? जीवन सार्थक हो जाता।" ज्ञान को आवाज़ अपने भीतर से आती सी लगी।
"ताना दे रहे हो ?"ज्ञान ने उकता कर कहा।
"हा हा हा...ताना... तुम लोगों को इतनी समझ कहाँ ? हर समय तुम्हे रोटी के अलावा कुछ नहीं सूझता।कभी अपनी अंतरात्मा की भी सुनो।देश की छोड़ो,कल यहाँ दो घरों के चिराग़ बुझ गए, तुमने क्या किया?मूक दर्शक बने हुए हो?"
"उपदेश मत बघारो खुद कुछ क्यों नहीं कर लेते?"ज्ञान ने गहरी साँस ली।
"ओह! मैं भला क्या कर सकता हूँ? मैं भी कायर हूँ।एक अरब की भीड़ का चरित्र, सबका साया।जो देखता सुनता सब है पर गूँगा है।"
ज्ञान ने बन्द होती आँखों से अँधेरे को देखने की कोशिश की।देश के भविष्य की तरह उसे वहां घना अँधेरा नज़र आया।
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(20). सुश्री राजेश कुमारी जी
“तमाशबीन”
.
“त्राहिमाम त्राहिमाम गजराज जी, आस पास का सब पानी सूख गया है नदी कितनी दूर है कमजोर वर्ग वहाँ तक कैसे जायेंगे कुछ कीजिये महाराज, कितनी बार कहने पर भी सिंह राज के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी क्यूंकि उनके खुद के ताल में तो बहुत सा पानी है जहाँ हमे पीने की इजाज़त नहीं हमारे लिए कुछ कीजिये”
जंगली जानवरों की सभा में मुखिया गजराज के सम्मुख कुछ जानवरों ने गिडगिडाते हुए कहा| गजराज जी सोच में सिर खुजलाने लगे कि इसका कैसे निवारण हो सिंह राज का ध्यान इस समस्या की ओर कैसे आकर्षित किया जाए|
“आप सब में से कौन इस समस्या के निवारण की युक्ति सुझाएगा”? गजराज ने पूछा |
तभी दूर खड़ा वानर पास आकर बोला “महाराज क्यूंकि मैं ही इंसानों को सबसे नजदीक से देखता हूँ तो मैं ही बता सकता हूँ कि वो अपनी आवाज़ सरकार के कानों तक कैसे पँहुचाते हैं हमे भी कुछ वैसा ही करना चाहिए”
फिर वो गज़राज के कान में कुछ देर तक फुसफुसाता रहा | गजराज को युक्ति समझ आई तो उसकी आँखों में चमक आ गई|
वो बोले “हमे अभी जतन करना होगा आप सब में से कुछ को ड्यूटी दी जायेगी उसका पालन करना होगा”
सब ने हामी में सिर हिला दिया|
सबसे पहले भालू को बोला गया कि पूरे जंगल से कुछ घास फूंस इकठ्ठा कर सिंह राज का पुतला बना कर लाए |
भेड़िये को घासलेट लाने को कहा गया | फिर लोमड़ी को एक कबूतर को फुसला कर लाने को कहा गया| क्यूँ पूछने पर जो गज़राज ने जो उत्तर दिया उससे उसके रोंगटे खड़े हो गए | “कल की आत्मदाह की हेडलाइन बनने के लिए”|
थोड़ी दूर पर खड़ी चीटियाँ और चूहे हँसने लगे उन्हें देख कर गजराज बोला “आप क्यूँ हँस रहे हो आप सब को क्या काम दिया जाए’?
वो बोले “हम तो आम जनता में ही ठीक रहेंगे सरकार पर एक ख़ास बात तो आप भूल ही गए”|
“वो क्या”? गजराज ने गरज कर पूछा’
“‘तमाशबीन’ भी तो होने चाहिए महाराज”
“अरे उनकी चिंता नहीं वो तो खुद ही आ जायेंगे कुत्ते,कव्वे और गधे” कम हैं क्या”?
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(21). श्री सुधीर द्विवेदी जी
खुजली
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रोज की तरह सुबह, फिर उसी चिर-परिचित कोलाहल के साथ हुई थी। सिर खुजाते हुए वह उठ बैठा। पत्नी अपने रोज-मर्रा के कामों में ही व्यस्त थी । पलंग के सिरहाने रखी मेज़ से गिलास उठा, उसने एक कुल्ला पानी मुंह में उड़ेला फ़िर तेज़ कदमों से दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
"ओफ्फो!! आप फ़िर चल दिए।" पत्नी नें उसे बाहर जाता देख आवाज़ लगाई पर उसनें अनसुना कर दिया।
'सामने वाले शर्मा जी के घर तो सन्नाटा है..फ़िर आज किसके..?' दाढ़ी खुजलाते हुए सोचते हुए उसनें अपनी जासूसी निगाहों को मुँह में भरे पानी के साथ इधर-उधर नचाया । आवाज़ गली के मोड़ से आ रही थी। मुँह में पानी भरे-भरे ही वह उस ओर चल दिया।
'आज थोड़ा चेन्ज मिलेगा . स्साला रोज-रोज शर्मा-शर्माइन् की लड़ाई देख-सुन बोर हो गया था।' सोच कर ही उसे गुदगुदाहट सी होने लगी। उसनें मुंह में भरे कुल्ला भर पानी को गुड़गुड़ाते हुए अपनी चाल और तेज़ कर दी।
उधर एक औरत और रिक्शा वाले से किराये को लेकर हो रहे झगड़े की आवाजें सुनाई दे रही थीं। मौके पर , इर्द-गिर्द काफी भीड़ इकट्ठा होनें के कारण जब उसे कुछ दिखाई नहीं दिया तो उसनें पिछली कतार में खड़े व्यक्ति से अपनी हथेली नचाकर इशारे से पूछा "क्या हुआ.आ..?" व्यक्ति नें उसे घूर कर देखा और हो रहे झगड़े को देखने में फ़िर व्यस्त हो गया। अब उसकी आँखे खुजला उठीं ।
भीड़ में रास्ता बनाते हुए, वह सबसे आगे पहुँच गया। सामनें झगड़ रही औरत को देखते ही वह सन्न रह गया. "जीजी..!" वह मुंह में पानी भरे-भरे ही बोल पड़ा। औरत नें ज्यूँ ही उसे देखा, दहाड़े मार कर रोने लगी। तभी भीड़ में से एक युवक निकल कर उस औरत को समझाने लगा।
"दीदी ! बिचारा गरीब है और स्टेशन से यहां का बीस रुपया ही लगता है। दे दो ना..!"
उसनें फौरन औरत के बग़ल में आकर उस युवक को आँखे तरेरी । युवक सिटपिटा कर पीछे हट गया। फौरन उस औरत का झोला उठाया और औरत को साथ ले ,वह आगे बढ़ चला।
"क्या जमाना है ? सही बात भी खराब लगती है.." पीछे से युवक कुनमुना उठा।
युवक का बडबडाना सुन वह तिलमिला कर झटके से पलटते हुए चीखा "चुप स्साले तमाशबीन ! गुस्से से दहाड़ते हुए उसनें मुँह में भरा पानी जमीन पर उगल दिया। उसे गरम होते हुए देख युवक चुपचाप वहां से खिसक लिया। भुनभुनाते हुए वह जरा और आगे बढ़ा ही था कि तभी शर्मा जी के घर से झगड़े की आवाजें आना शुरू हो गयीं। आवाजें सुन उसके कान खुजलाने लगे। उसने आनन-फानन अपनी जीजी को घर के दरवाजे पर छोड़ा और दातून तोड़ने के बहाने शर्मा दम्पत्ति के घर के बिलकुल करीब पहुँच चुपचाप उन दोनों के बीच हो रहे झगड़े को सुनने का मज़ा लेने लगा।
बार-बार उठ आती उसके अंगो की खुजली अब न जाने क्यों ? कुछ समय के लिए शांत हो गई थी ।
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(22). श्री पवन जैन जी
तपन
"देख रहे हो न कन्हैया, कितनी आग बरसा रहे हैं ! पंछी पके फलों जैसे टपक रहे हैं,जानवर रिरियाते हुए घन चक्कर हो रहे हैं । ओह ! कुछ तो समझाइश दो इन्हें,अब तो खून खोलने लगा है।"
"तुम्हारा खून अब खोल रहा है ! कहाँ थे जब मैं खून के आंसू रो रहा था ? क्यों तमाशाई बने देख रहे थे,जब हरे भरे जंगल अपनी तरक्की की महामारी में कटवा रहे थे ? क्यों जहर मिलाते रहते हो मेरी सांसों में ? बडे और समझदार हो गए हो ना ! अब तो शिकायतें करना बंद करो ।
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(23). श्री शुभ्रांशु पाण्डेय जी
तमाशबीन
“चोरी करता हैऽऽ? मैंने देखा है तुझे पाकेट से पर्स निकालते..” कहते हुये वो खींच-खींच कर उस पाकेटमार को मारे जा रहा था. थप्पड़, लात, घूँसे चलाते हुए उसे हाँफी छूट गयी. उसे बार-बार सुबह की बात याद आ रही थी.
“क्या है ये?” कम्पनी के एम डी ने उसे अपने चैम्बर में बुला कर जोर से पूछा था. उनके सामने कैशबुक और खर्चो के खाते खुले थे.
“जी, सारे लोग मुझसे सिनियर थे, बड़े लोगों को कैसे मना कर सकता था?” डरते हुये उसने कहा था.
“बड़े लोग माइ फुट ! उन सभी के साथ पनिशमेण्ट तो तुम्हें भी मिलेगी. मुँह बंद किये तुम सारा कुछ चुपचाप देख रहे थे ? जानते हो, गलती करने वाले से गलती देखने वाले का दोष कम नहीं होता है.”
ये बात जितनी बार उसके मन में कौंधती, उसके हाथ और जोर्-जोर से उस पाकेट्मार पर थप्पड़-घूँसे बरसाने लगते. ऐसा लग रहा था जैसे वो अपने माथे से तमाशबीन होने के दाग को धोना देना चाहता था.
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(24). श्री तेजवीर सिंह जी
तमाशबीनों का मुल्क़
"ज़मूरे, तमाशे के लिये तैयार हो "!
"नहीं उस्ताद, अब हमसे नहीं होता , यह सब"!
"क्या हुआ ज़मूरे, मन क्यों उदास है"!
"उस्ताद, घंटों ढपली पीटने पर चार लोग भी नहीं आते हमारा तमाशा देखने, अब सडकों पर पैसा फ़ैंक कर तमाशा देखनेवाले तमाशबीन गायब हो गये! अब हर कोई ए सी हॉल में सिनेमा देखना पसंद करता है"!
"मगर उस सब में वह रोमांच और ज़ुनून वाली भावना कहां आती है जो हमारे रस्सी और बांस के करतब में है!अपनी आंखों से सडक पर यह सब देखना एक अलग हैरत अंगेज़ जोश पैदा करता है"!
"उस्ताद इससे भी खतरनाक़ , हैरत अंगेज और जीते जागते कारनामे तो रोज़ हमारे देश की सडकों पर मुफ़्त में देखने को मिलते है! उसमें और भी अधिक आनंद और रोमांच मिलता है"!
"ज़मूरे,तुम किस खेल तमाशे के बारे में बोल रहे हो"!
"उस्ताद,यह खेल तमाशे की बात नहीं, यह हमारे देश की सडकों की कडवी सच्चाई है, जिसे इस देश की आधी आबादी महज़ तमाशबीन बन कर देखती रहती है"!
"ज़मूरे, हम तुम्हारा मतलब नहीं समझे "!
"उस्ताद, सडक पर खुले आम बलात्कार, खून, लूट पाट होती है! लोग तमाशा देखते रहते हैं! एक स्कूल जाते बच्चे को ट्रक कुचल जाता है, बच्चा सडक पर तडप रहा है! लोग तमाशा देखते रहते हैं! एक गुंडा लडकी के साथ छेड खानी करता है, उसके कपडे फ़ाड देता है! लोग तमाशा देखते रहते हैं! बैंक से एक बुजुर्ग पेंशन लेकर निकलता है, एक उठाईगीरा उसका थैला छीन कर भाग जाता है!लोग तमाशा देखते रहते हैं! और क्या क्या गिनाऊं उस्ताद"!
“शायद तुम ठीक कहते हो ज़मूरे, अब इस मुल्क़ में इसी तरह के तमाशबीनों की तादाद बढ रही है”!
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(25). श्री मोहन बेगोवाल जी
तमाशबीन
अभी अभी सडक पर जो हादसा हुआ, मोटरसाईकिल चालक ने दस वर्ष की एक बच्ची को कुचल दिया,और वह दर्द से कराहने लगी ।
लोग उसकी तरफ देखते हुए पास से गुजरते जा रहे थे, मगर किसी का दिल पसीज नहीं रहा था,कोई उस को उठा कर सडक के किनारे पर कर दे । कुछ लोग तमाशाई बन थोड़ी देर के लिए वहाँ खडे होते और चल देते ।
मगर कुछ मोहतबर किस्म के लोग मोटरसाईकल चालक को घेर कर उस पर समझोता करने का जोर डालने लगे ।
“चलो बच गई, चोट भी कोई ज्यादा नहीं लगी”,बच्ची के पास आते हुए एक मनुष्य ने कहा ।
इक मोहतबर ने मोटरसाईकल चालक की तरफ इशारा करते हुए कहा, “चल इसको पचास सौ रुपए दे इसका इलाज हो सके,वरना अगर पुलिस आ गई तो फिर .........”
तब छोटे कद के फिडू ने भीड़ में से आगे बढ़ कर कहा , “भाई साहिब अगर आप के बच्चे के साथ ऐसा हुआ होता तो, क्या आप इन को ऐसे ही छोड़ देते ?”
बात ये नहीं, कि पैसा ले लो,या नहीं,इसने गलती की है, बच्ची को इंसाफ मिलना चाहिए।
हर कोई अपनी राए दे रहा था, मगर बड़ी भीड़ तमाशाई बनी खड़ी, उसके इलाज की तरफ कोई ध्यान नहीं दे रही थी ।
“आम लोगों की बात हो तो सभी को सांप सूंघ जाता है”
“बात को जारी रखते हुए उस कहा,मगर ताकतवार की ताकत और बढ़ाते है ”।
“तभी तो ताकतवर लोग किसी को भी कुचल दें क्या फर्क पड़ता है ”। पास खड़े एक तमाशबीन ने फिडू की बात से सुर मिलते कहा ।
“फैसला तो होना चाहिए, वरना एक दिन ये खुद फैसला कर दिखायंगे ...........
“ जो तुम लोग तमाशा देख रहे हो, एक दिन ये तुमाहरा तमाशा बना देंगे,उसने मन ही मन में कहा”
थोड़ी देर बाद सब लोग साथ मोहतबर भी वहाँ से जा चुके थे, मगर मोटरसाईकल वही खड़ा था, फिडू मोटरसाईकल की तरफ गया, उस से कुछ बातें हुई और दोनों इक तरफ हो गए, और कुछ देर बाद वहाँ से बाज़ार की तरफ चल पड़े, मगर बच्ची वहाँ लेटी लेटी उठने की कोशिश करने लगी ।
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(26). श्री समर कबीर जी
"करतब"
शह्र के तिराहे की बायीं जगह का चयन किया । साईकिल पर लदी मैली कुचैली गठड़ी, पीतल की थाली,चार लंबे बाँस और रस्सी को ज़मीन पर पटका । साईकिल को एक तरफ़ खड़ा किया । बाँस को आमने सामने खड़ा करके गाड़ा । उस पर रस्सी तानी । मैले कपड़े, बाल बिखरे हुए बारह बर्षीय अपनी लड़की को रस्सी पर चढ़ाया । फिर उसके हाथों में रीम थमाया ।लड़की ने रस्सी पर संतुलन बना लिया था । अब वह रीम को पैरों के पंजों के सहारे रस्सी पर चलने लगी । बाप पीतल की थाली ज़ोर ज़ोर से बजाकर जनता का ध्यान आकर्षित करने लगा। भीड़ धीरे धीरे एकत्रित होने लगी ।लड़की रस्सी पर लगातार अपना हुनर दिखा रही थी । बाप ने झोली से कटोरा निकाला और लोगों के आगे करने लगा । लोग उसके कटोरे में रुपये पैसे डाल रहे थे । लेकिन ये क्या ! एल पागल नवयौवना ,बाल बिखरे हुए ,पूरी तरह से नंगी अपना सर खुजाती हुई,बड़बड़ाती हुई उस तमाशे के पास से गुज़री । फिर क्या था। सब तमाशबीन उस नंगी पागल नवयौवना को निहारने लगे । किसी की जीभ लपलपा रही थी,कोई आँखे फाड़-फाड़ कर देख रहा था तो कोई एक दूसरे को कोहनी मार कर इशारा कर रहा था । लड़की के करतब को कोई नहीं देख रहा था । बाप कटोरा लिये आवाक सा भीड़ को देख रहा था । भीड़ उस लड़की के पीछे चल दी । बाप ने लड़की को रस्सी से नीचे उतार लिया । सब से बड़ा करतब तो हो गया था ।
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(27). श्री लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी
मसीहा
.
रात ग्यारह बजे शादी समारोह से लौटते गाडी को पीछे आ रही टैक्सी ने टक्कर मारी तो गाडी डिवाइडर पर चढ़कर उलट गई | टैक्सी दौड़ाकर ड्राइवर भाग गया | घर लौटते दो सब्जी ठेले वालों ने गाड़ी किसी तरह सीधी करवाई तो पीछे बैठे बुजुर्ग दम्पत्ती घायल अवस्था में बाहर निकले | गाडी चला रही उनकी बहूँ को वहा इक्कट्ठे हुए लोगो की भीड़ में से कोई टैक्सी के नम्बर बता रहा था, कोई पुलिस में शिकायत करने की सलाह दे रहा था तो कोई पटरी पर बैठे कराह रहे बुजुर्ग दंपत्ति को अस्पताल ले जाने को कह रहा था पर ले जाने आगे कोई नहीं आया |
तभी एक अन्य टैक्सी में आ रही अधेड़ महिला ने टैक्सी रुकवा बुजुर्ग दंपत्ति को अपनी टैक्सी में बैठाकर अस्पताल ले गई जहाँ बुजुर्ग व्यक्ति का एक्सरे कर भर्ती कर लिया गया | उन्हें तुरंत इंजेक्शन लगा आक्सीजन देने के बाद डाक्टर ने कहा कि इन्हें लाने में और देरी हो जाती तो वृद्ध व्यक्ति को बचाना मुश्किल हो जाता | तब प्राथमिक चिकत्सा के अभाव में अपने पति को खो चुकी उस अधेड़ महिला ने कहा –“वहाँ भीड़ तो काफी थी पर अस्पताल पहुँचाने की हिम्मत कोई नहीं कर रहा था” |
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(28). श्री चंद्रेश कुमार छतलानी जी
भूख
"उफ़.." रोटी के थाली में गिरते ही, थाली रोटी के बोझ से बेचैन हो उठी| रोज़ तो दिन में दो बार ही उसे रोटी का बोझ सहना होता था, लेकिन आज उसके मालिक नया मकान बनने की ख़ुशी में भिखारियों को भोजन करवा रहे थे, इसलिए अपनी अन्य साथियों के साथ उसे भी यह बोझ बार-बार ढोना पड़ रहा था| थाली में रोटी रख कर जैसे ही मकान-मालिक आगे बढ़ा, तो देखा कि भिखारी के साथ एक कुत्ता बैठा है, और भिखारी रोटी का एक टुकड़ा तोड़ कर उस कुत्ते की तरफ बढ़ा रहा है, मकान-मालिक ने लात मारकर कुत्ते को भगा दिया| और पता नहीं क्यों भिखारी भी विचलित होकर भरी हुई थाली वहीं छोड़ कर चला गया| यह देख थाली की बेचैनी कुछ कम हुई, उसने हँसते हुए कहा:
"कुत्ता इंसानों की पंक्ति में और इंसान कुत्ते के पीछे!"
रोटी ने उसकी बात सुनी और गंभीर स्वर में उत्तर दिया:
"जब पेट खाली होता है तो इंसान और जानवर एक समान होता है| भूख को रोटी बांटने वाला और सहेजने वाला नहीं जानता, रोटी मांगने वाला जानता है|"
सुनते ही थाली को वहीँ खड़े मकान-मालिक के चेहरे का प्रतिबिम्ब अपने बाहरी किनारों में दिखाई देने लगा
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(29). श्री राजेन्द्र गौड़ जी
तमाशबीन
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बड़े से कमरे में दीवार से लगे विशाल टीवी के सामने झकझक करते सोफे पर बैठे नेता जी आ रही तस्वीर जो की दिखा रही थी कि किस प्रकार एक विशाल मैदान में आयोजित एक विशाल जनसभा को पुलिस खदेड़ कर भगा रही हैं । सब लोग बड़ी संख्या में उपस्थित पुलिस को देख सहमें से इधर उधर रास्ता खोज रहे थे ।नेता जी खुश होते हुए कह उठे चलो यह तमाशा भी ख़त्म हुआ और प्रसन्न चित हो टीवी बँद ही करने वाले थे कि दर्श्य पर दिखने लगा जनता तमाश बीन न हो कर स्वयं विरोध का उद्घोष कर रही थी ।
तभी नेता जी के बुढ़े पिता जी ने कहा "तमाशा बड़ा बेरहम होता हैं कब कौन मदारी रोल बदलते देर नही ।"
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(30). श्री सुशील सरना जी
डुग डुग डुग डुग ..... ' हाँ तो भाईजान,कद्रदान। .. बन्दे का हर इन्सान को सलाम। मेरे भाईयो सब दो दो कदम पीछे हो जाएँ। आज आपको ऐसा करतब दिखाया जाएगा कि आप अपने दांतों तले उंगली दबाए बिना न रह सकेंगे।'' डुग डुग डुग डुग डुग डुग ......
'काली' ...
'हाँ उस्ताद '
'हर करतब दिखाएगी ' ...
'दिखाऊंगी '
'मुकर तो नहीं जाएगी '...
'नहीं सरकार'
'रस्सी पर चल के दिखलाएगी' ...
'दिखलाऊँगी'
'नीचे अंगारों से डर तो नहीं जाएगी '....
'नहीं उस्ताद '
जम्बूरे की ८-१० साल की बच्ची दो बांसों के बीच लगी रस्सी पर चढ़ कर अपना बॅलन्स बनाने लगी। रस्सी के नीचे ज़मीन पर अंगारे भभक रहे थे। जम्बूरे ने अपनी डुगडुगी बजाई। दर्शक हैरत से उस बच्ची को रस्सी पर चलता देखने लगे। जरा सा बैलेंस बिगड़ते ही बची अंगारों पर गिर सकती थी। डुगडुगी की आवाज़ बच्ची के बैलेंस को बना रही थी। रस्सी के दूसरे छोर पर पहुँचने से पहले ही डुगडुगी की आवाज़ रुक गयी। जम्बूरा सीने को पकड़ कर गिर गया शायद उसे दिल का दौरा पड़ा था। बच्ची जोर से चिल्लाई 'पापा ' और वो रस्सी से कूद कर दौड़ती आई। रोते रोते पापा के सीने को जोर जोर से मसलने लगी। मगर तब तक उसकी सांसें थम चुकी थीं। सब तमाशबीन बने तमाशा देख रहे थे। लोग इसे भी तमाशे का हिस्सा मान रहे थे। तालियां बज रही थी सिक्के उछल रहे थे। बच्ची मदद लिए हाथ फैलाए रो रही थी। बच्ची ने दूर पडी डुगडुगी उठाई और बजाते हुए कहा 'कद्रदानों,मेहरबानो ! अब तो इस तमाशे पर रहम करो। ज़िंदगी ने सबसे बड़ा तमाशा दिखा दिया है। अब मुझपर इतना करम करो कि ज़िंदगी के इस आखिरी तमाशे पर तालियां न बजाओ। ज़मीन पर सिक्के गिराने की जगह मेरे उस्ताद को कांधा दे दो। मगर अफ़सोस सब तमाशबीन निकले। इन तमाशबीनों में कोई आदमी न मिला।
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(31). सुश्री कल्पना भट्ट जी
सेहरा
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"सुनो मुरारी जी! बहुत हो गया, मैं बारात वापिस ले जा रहा हूँ| उठ बेटा सूरज, यह शादी नहीं होगी | " घनश्याम बाबू ने गुस्से से अपना निर्णय सुना दिया |
"घनश्याम बाबू! तनिक मेरी पगड़ी की भी लाज रख लो| आपको दहेज़ की रकम मिल जाएगी, शादी तो हो जाने दीजिये| लोग क्या कहेंगे ? "
यह वार्तालाप सुन वहां इक्कठे हुए मेहमान भी हैरान हो गए| यह खबर आग की तरह फैल गई कि मुरारी बाबू ने दहेज़ की रक़म नहीं दी तो लड़के के पिता ने हंगामा खड़ा कर दिया है| बहस बढ़ती गई, ताव में आकर घनश्याम जी ने मुरारी जी की पगड़ी उछाल कर फेंक दी| मंडप से दुल्हे को उठा दिया गया था| मुरारी जी हतप्रभ और गुमसुम खड़े थे| तभी एक आवाज़ ने बरात में आये हुए लोगो को चौंका दिया:
"बाबा, बस अब बहुत हो गया, मुझे नहीं करनी यह शादीI नहीं खरीदना है यह सेहरा| "
बेबस बेटी वहां आई भीड़ को देख रही थी| उस भीड़ में अपना कोई न था|
हाथ जोड़ कर बेटी ने सब को संबोधित किया:
"कृपया आप सब चले जाइए|"
उसके तेवर देखकर भीड़ में से किसी ने चिढ़ कर कहा ;
"कितनी अजीब लड़की है | "
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(32). श्री सतविंद्र कुमार जी
सर्वहित सत्यवादी
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राम सिंह और उनके घनिष्ठ मित्र सुग्रीव पड़ोसी भी बहुत अच्छे थे।दोनों की मित्रता और उनके परिवारों में गहन आत्मीय सम्बन्ध पूरे मोहल्ले में मिसाल कायम किए हुए थे।पर जाने क्या हुआ आज दोनों परिवार के सदस्य एक दूसरे पर तंज कस रहे हैं।दोनों तरफ से अच्छी मंदी बातें एक दूसरे को कही जा रही हैं।वे खुल्लमखुल्ला परस्पर इस कदर चिल्ला रहे हैं कि सारे मोहल्ले से पड़ोसी बाहर निकल उन्हें देखने लग पड़े।
उन दोनों के घरों के बिलकुल नजदीक के घर से बाहर निकल उनकी ओर देखते हुए दो शख़्स बतियाना शुरू करते हैं।
"अरे सर्वहित सत्यवादी जी!ये दोनों तो आपके काफी निकट हैं।आपकी घनिष्ठता भी है दोनों संग।आपको तो मालूम होगा क्यों ये सब.......?", एक ने दूसरे से जिज्ञासावश पूछ लिया।
"अरे बच्चों में खेलते-खेलते कोई झगड़ा हुआ होगा।शुरुआत तो यही थी।"
माचिस की तीली से दाढ़ को कुरेदते हुए सर्वहित सत्यवादी बोले।
"समझदार लोग हैं।ऐसी छोटी सी बात पर तो न झगड़ते।आप ने समझाया नहीं?"
थोड़ा हैरानी के साथ।
"आक थूsss!समझाया दोनों को अलग-अलग।तभी तो सीन बना है।",दाढ़ से निकले तिनके को थूकते हुए।
"मतलब?"
"अरे स्क्रिप्ट अच्छी होगी तभी तो सीन मजेदार होगा।अब लोग तो मनोरंजन के लिए पता नहीं कितना कितना खर्च करते हैं?"
"तो यह सब आपका किया .......!",हतप्रभ सा इतना ही बोल पाया।
"बड़े जिगरी बने फिरते थे। देखो!अब कैसे रोड़ों से फायरिंग हो रही है?"
सत्यवादी जी बड़ी खुशमिजाजी में मनोरंजन का लुत्फ़ उठाते बोल रहे थे कि अचानक एक रोड़ा उनके माथे से टकराया और रक्त का फव्वारा फूट पड़ा।
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(33). श्री चौथमल जैन जी
"लानत "
तीन गुण्डे टाइप व्यक्ति एक जवान युवती को थोड़ी दूर खड़ी वेन की ओर घसीट कर ले जारहे थे ,युवती उनसे छूटने के प्रयास में छटपटा रही थी। गंगा की बूढी हड्डियों में इतना दम कहाँ था कि वह उन बदमाशों से अपनी बेटी को छुड़ा पाती ,फिर भी उसने दौड़कर एक बदमाश का हाथ पकड़कर बिलखते हुए कहा - " छोड़ दे मेरी बेटी को.......छोड़ दे "
"चलहट बुढ़िया " कहते हुए उसने एक झटका दिया तो गंगा जमीन पर गिर पड़ी। मोहल्ले के लोग अपने घरों से निकल कर देख रहे थे। गंगा चीखती रही - "कोई मेरी बेटी को बचालो , बचालो कोई उसे ,वह मासूम है। " गुण्डे युवती को लेकर वेन में बैठे और चले गए। गंगा ने रोना बंद करके आग्नेय नेत्रों से आसपास के सारे लोगों को घूरा फिर चीख कर बोली - "जाओ चले जाओ सब , अब क्या है यहाँ , तमाशा ख़त्म होगया है। लेगए हैं वे मेरी बेटी को , नोच खसोट कर किसी सड़क पर फ़ेंक देंगे ,वह मर जाएगी। कल मोहल्ले की किसी और लड़की को लेने आयेंगे ,तब तमाशबीन बनकर देखना। थू । " उनकी ओर थूक कर पैर पटकती हुई चली गई।
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शाम होते ही समाचार बुलेटिन के समय सरदार जी अपने बचपन के दोस्त पंडित जी के घर पहुँच गएI क्योंकि पूरे गाँव में एक ही टीवी था इसलिए अन्य लोग भी दूरदर्शन पर समाचार देखने के लिए अक्सर पंडित जी के घर आ जाया करते थेI
दरअसल, प्रदेश की अमन-शांति को न जाने किसकी नज़र लग गई थीI देखते ही देखते आतंकवाद की आग पूरे प्रदेश में फैल गई थीI दिन दिहाड़े निर्दोष और मासूम लोगों की हत्याएँ रोज़ की बात हो गई थीI कभी भरे बाज़ार में अंधाधुंध गोलिआं बरसा दी जातीं तो कभी बसों से उतार कर लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाताI कभी कहीं बम धमाका कर दिया जाता तो कभी किसी धर्म स्थान में पशु का सिर गिरा दिए जाने की घटना हो जातीI अब तो पुलिस द्वारा निर्दोष युवकों को आतंकवादी बता कर नकली मुठभेड़ में मार देने की घटनाएँ भी सामने आने लगी थींI दोनों समुदायों में यद्यपि आपसी सौहार्द यथावत कायम था, किन्तु हालत से भयभीत अल्पसंख्यक समुदाय का प्रदेश से पलायन भी प्रारंभ हो चुका थाI कई बरस बीत जाने के बाद भी यह सिलसिला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा थाI पूरे समाचार बुलेटिन मैं ऐसे समाचारों का ही बोलबाला रहताI
आधे घंटे का समाचार बुलेटिन शुरू हुआ, सभी लोग सांस रोक कर टीवी सेट पर नज़र गड़ाए हुए बैठे थेI आधा समय गुजर जाने के बाद भी प्रदेश से हत्या या हिंसा की कोई खबर नहीं थी, अचानक अपने प्रदेश का नाम सुनते ही उनके चेहरे पर उत्सुकता के भाव गई बुना बढ़ गएI समाचार वाचक ने बताया कि प्रदेश में किसी अप्रिय घटना का समाचार नहीं है जिसे सुनकर दोनों के माथे पर अविश्वास की रेखाएं उभर आईंI फिर खेल समाचार के बाद मौसम का हाल बताया गया और समाचार बुलेटिन समाप्त हो गयाI सरदार जी ने पंडित जी की तरफ देखा और ढीले से स्वर में बोले:
“चलो अच्छा है आज कोई बुरी खबर सुनने को नहीं मिलीI”
“सही कहा, अमन-चैन ही रहे तो अच्छा हैI” टीवी बंद करते हुए बुझे से स्वर में पंडित जी कहाI
दोनों खामोशी से उठकर दरवाज़े की तरफ बढ़े, और फिर अचानक एक स्वर में बोल उठे:
“अमन चैन तो ठीक है, मगर समाचार का मज़ा नहीं आया आजI
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(35). सुश्री शशि बांसल जी
तमाशबीन
सुबीर काँच के केबिन में बैठे देख रहा था कि वह सुबह से ही असहज है ।उसने उसके संदेशों का भी प्रत्युत्तर नहीं दिया , यानि आज फिर उसका अपने पति से झगड़ा हुआ है ।
सुबीर और वह पिछले पाँच वर्षों से सहकर्मी थे ।दोनों के दुःख भी समान थे, " जीवनसाथी से विचार भिन्नता।" समयचक्र ने सुबीर और उसके बीच अहसासों की घनिष्ठता इतनी बढ़ा दी थी कि वे एक दुसरे का चेहरा देख हाले दिल जान लेते ।इसे उनकी शातिरी कहा जाये या सप्तपदी के प्रति वचन बद्धता ,दफ़्तर में किसी तीसरे को राई बराबर इसकी भनक न लगी ।
सुबीर ने देखा, वह कुर्सी से गश्त खाकर नीचे गिर पड़ी है ।उसे सँभालने जितनी फुर्ती से उसने कुर्सी छोड़ी, जवाब में उतनी ही फुर्ती कदमों ने न करने में दिखाई ।
उसके चारों ओर अन्य सहकर्मियों की भीड़ लग गई थी ।सब उसे सँभालने में लगे थे ।उसका पति भी सूचना पाकर आ पहुँचा था । वह अपने पति के कंधे और बाँहों के सहारे उस पर एक दृष्टि डालते हुए बाहर निकल गई । सुबीर भी होठों पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान लिए निढाल हो अपनी कुर्सी पर जम गया । आखिर ,उसकी आँखों ने उनके बेनाम रिश्ते को आज एक नाम जो दे दिया था , "तमाशबीन"
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(36). श्री गणेश बागी जी
गुरुर
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मैदान में कबाड़ से बनी कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगी थी. भीड़ को देख कल्लुआ भी प्रदर्शनी देखने चला गया. एक कलाकृति की काफ़ी चर्चा हो रही थी तथा उसको बनाने वाले कलाकार भोला नाथ को सम्मानित किया जा रहा था.
“अरे यह तो अपना भोलुआ है. कुछ साल पहले तक तो मेरे साथ में ही कबाड़ चुना करता था.”
भोला नाथ को देखते ही एकाएक कल्लुआ पांच साल पीछे अपने अतीत में चला गया.
वह और भोलुआ दोनों प्रभु सेठ के लिए कूड़ा चुना करते थे, दोपहर को खाली समय में सेठ कबाड़ में से ही कुछ चुनकर उसे जोड़ तोड़ करवाता था. भोलुआ तो यह सब कर लेता था किन्तु कल्लुआ को सिनेमा देखना और अन्य कबाड़ चुनने वाले साथियों के साथ मटरगस्ती करना अच्छा लगता था. आखिर एक दिन दोस्तों के बहकावे में आकर प्रभु सेठ के लिए काम करना छोड़ दिया तथा दूसरी जगह काम करने लगा जहाँ कोई रोक टोक नहीं करता था.
“इस सम्मान का श्रेय मैं अपने गुरु प्रभु सेठ को देना चाहता हूँ ......”
माइक से आ रही तेज आवाज से कल्लुआ की तन्द्रा टूट गयी.
“हुँह!! आज बड़ा भोला नाथ बना बैठा है, साला कबाड़ी कही का .....”
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(37). श्री विनय कुमार सिंह जी
विरोध
"जरा बढ़िया वाला आम देना, उस दिन वाले अच्छे नहीं थे ", बोलते हुए उसकी निगाह उस बूढ़े दुकानदार पर टिक गयी| दरअसल वो ऐसे ही बोल गया, पिछली बार वाले आम भी बढ़िया ही थे|
" बाबूजी, एकदम बढ़िया हैं ये, आपको शिकायत का मौका नहीं दूंगा ", हँसते हुए उसने अपनी तरफ से एकदम बढ़िया वाले आम निकाले और तौलने लगा| वो भी जेब से पैसे निकाल रहा था कि अचानक उस आवाज़ से चौंक गया|
" ओ बुढ़ऊ, कितनी बार बोला है कि यहाँ ठेला मत लगाया करो, लेकिन तुम मानते ही नहीं हो| लगता है तुम्हारा कुछ करना पड़ेगा", हवलदार ने एक डंडा उसके ठेले पर मारा और एक सेब उठाकर खाने लगा|
"साहब, यहीं पर तो हमेशा से लगाता हूँ ठेला, आप काहें खफा होते हैं", और धीरे से वो अपने गल्ले से कुछ नोट निकालने लगा|
कई बार देखा था उसने हवलदार को दुकानों से पैसा वसूलते लेकिन कभी वो कुछ बोल नहीं पाया था| लेकिन आज पता नहीं क्यों उसे खटक गया और वो बोल पड़ा:
"क्या गलत कर दिया है इसने हवलदारजी, सब तो यहीं लगाते हैं ठेला"| बोलने के बाद खुद उसे अपनी आवाज़ से हैरानी हो रही थी कि ये कैसे कह दिया उसने|
"ज्यादा नेतागिरी मत झाड़ो, वर्ना दिमाग ठिकाने लगा दूँगा", हवलदार ने कड़कते हुए उससे कहा और बूढ़े की तरफ रुपया लेने के लिए हाथ बढ़ाया|
"दादा, पैसे मत देना इसको, इसी से इनकी हिम्मत बढ़ती है", और वो हवलदार के सामने खड़ा हो गया|
हवलदार ने गुस्से में उसका कालर पकड़ लिया और एक थप्पड़ उसको लगाने जा रहा था तब तक लोगों की भीड़ इकठ्ठा होने लगी| उसने अपना कालर उससे छुड़ाया, बूढ़े को पैसे देकर फल लिया और चलने लगा| पीछे से हवलदार और भीड़ की मिली जुली आवाज़ें आ रही थीं, लेकिन उसे आज अपने तमाशबीन नहीं होने पर अंदर से काफी संतुष्टि थी|
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(38). श्री मुज़फ्फ़र इक़बाल सिद्दिक़ी जी
तमाशा
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बीच चौराहे पर एक नट डुग -डुगी बजाकर लोगों को इकठ्ठा कर रहा था। इसने दो लकड़ी के खम्बों के बीच कुछ दूरी पर एक रस्सी बाँध रखी थी। जब लोग इकट्ठा हो गए तो उसने अपने दस साल के लड़के के हाथ में एक लकड़ी पकड़ा कर चलने को कहा। लड़का उस लकड़ी को आड़ी पकड़ कर होले -होले अपना सन्तुलन बना कर आगे बढ़ रहा था। तमाशबीन उस लड़के के इस कारनामे को बड़ी हैरत से देख रहे थे। नट की डुग -डुगी जारी थी। वो अपना कासा लेकर तमाशबीनों के पास गोल -गोल घूम रहा था। लोग बतौर नज़राना कुछ रूपये -पैसे डाल रहे थे। दरअसल नट और उसका लड़का इस तरह करतब दिखा कर अपने परिवार का पेट पाल रहे थे।
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दिनेश भी उन्हीं तमाशबीनों में शामिल था। सोच रहा था। उस छोटे से लड़के का ,उस पतली सी रस्सी पर एक लकड़ी को आड़ी पकड़ कर सन्तुलन बना कर चलना वास्तव में एक अजूबा तो है ही। लेकिन हमारी ज़िन्दगी की डोर भी तो उस पतली सी रस्सी के समान है ,जिसमें हम अपनी चाहतों और ज़रूरतों में सन्तुलन बनाते हुए आगे बढ़ते हैं। तभी तो ज़िन्दगी का सफर तय कर पाते हैं।
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(39). सुश्री डॉ वर्षा चौबे जी
तमाशबीन
"क्या जरूरत थी तुझे पुलिस स्टेशन जाकर रिपोर्ट लिखवाने की,हम मर गए थे क्या?
"माँ,ये तुम कह रही हो"?
"और कौन कह रहा?"
"लेकिन माँ, तुम्हीं ने तो सिखाया अन्याय के खिलाफ लड़ना ,आवाज उठाना और.... "
"हाँ,लेकिन इतना तमाशा खड़ा करने की क्या जरूरत थी?"
"तमाशा मैंने खडा़ किया या उन लड़कों ने |"
"अरे तू समझती क्यों नहीं,तेरे इस कारनामे का क्या असर होगा?"
"क्या होगा?"
"खूब चटपटी खबर बनेगी,मीडिया पर बढा़-चढ़ा कर पेश की जाएगीं|
और....
"और क्या...."
"और लोग सिम्पेथी के नाम पर तमाशबीन बनकर आ जाएगें|तरह -तरह के सवाल करेंगें सो अलग| हम किस- किसको क्या जबाव देंगे|"
"पर माँ ,इसका मतलब ये तो नहीं न कि हम अपने प्रति किए गए अपमान ,अत्याचार का प्रतिकार न करें|"
"ऐसे तो इन लोगों का हौंसला और बढ़ेगा|"
"अब भाषण बंद कर और जा अपने कमरे में"|
जाते-जाते प्रीति ने सुना पापा मोबाइल पर बात करते हुए किसी से कह रहे थे
" नहीं जी ,आप जिस प्रीति की बात कर रहे हो वो कोई और होगी हमारी बिटिया तो काफी दिनों से आउट आफ स्टेशन है"|
"और हाँ, पुलिस रिपोर्ट की चिन्ता आप मत करिए ,अभी जाकर मैं सब स्थिति साफ किए देता हूँ|
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(40). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
लघुकथा- मर्द
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वैसी ही भीड़ देख कर जीनत चौक गई. कहीं फिर किसी को उस की तरह बेआबरू तो नहीं किया जा रहा है. जीनत की आँखों में अतीत घूम गया, “ ये देखो, भाइयों ! मर्द के वेश में नामर्द.” कहते हुए गुंडों ने उस के कपडे तारतार कर दिए थे. तभी सरिता भीड़ को चरती हुई कृष्ण के रूप में अवतरित हुई थी.
यह याद आते ही जीनत को जोश आ गया. वह भीड़ में घुस पड़ी. वहाँ एक असहाय नारी अपने तारतार हुए कपड़े से अपनी आबरू ढकने की भरसक कोशिश करते हुए, चीखचीख कर पुकार कर इधरउधर दौड़ रही थी. मगर भीड़ तमाशबीन बनी हुई चुपचाप देख रही थी.
यह देख कर जीनत का खून खौल उठा. न जाने कहाँ से ताकत आ गई. वह ताल ठोक कर गुंडों के सामने खड़ी हो गई:
”अबे साले ! नामर्दों ! असहाय औरत को जलील करते हो. शर्म नहीं आती है ? तुम्हारे घर में बहनबेटी नहीं है क्या ? लगता है कि अब तुम जैसे मर्दों से औरतो की रक्षा हम जैसे नामर्दों को ही करना पड़ेगी.”
कहते हुए जीनत ने उस असहाय औरत को खींच कर अपने पीछे कर लिया .
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(41). सुश्री नेहा अग्रवाल जी
दादू की सौगात
शहर के सबसे बड़े अस्पताल के सामने बड़ी बड़ी गाड़ियों के बीच ठेले पर आये मरीज को देखकर लोग हैरान हो गये थे।और आपस मे काना फूसी करने लगे थे।
"यह देखो जरा अब चीटीयों के भी पंख निकल आये है ।शायद यह गमछाधारी जानता नहीं कि यह कितना मंहगा अस्पताल है।"
कोई नहीं भाईसाहब अभी देखना कैसे उल्टे पांव लौट कर आयेगा।वो कहावत है ना पास में नही दाने, और अम्मा चली भुनाने।
मरीज के अस्पताल के अन्दर जाते ही लोग किसी बड़े तमाशे की उम्मीद में अपना फोन विडियो मोड मे ले आये।
आपरेशन थियेटर का दरवाजा खुला औऱ फिर डाक्टर रामू के पास आकर बोले ।
"भगवान का शुक्र है कि आप सही समय पर अपने पिता को अस्पताल ले आये नहीं तो कुछ भी हो सकता था।पर अब आपके पापा खतरे से बाहर है। "
रामू ने अपने आंखों में उतर आयी नमी को सबसे छुपाते हुए अपनी बीबी का हाथ पकड़कर बोला।
"जानती हो सुलेखा जब दादू ने फालसे का बाग लगाया था तो पूरा गांव उन्हें पागल समझता था। पर आज वही फालसे 400 रूपये किलो बेच बेच कर मैं इतना समर्थ हो गया कि अपने बापू का अच्छा से अच्छा इलाज करा सका जाने क्यों लोग कहते हैं पैसे पेड़ पर नहीं लगते, लगाना अाना चाहिए बस, पैसे सच में पेड़ पर ही लगते हैं।"
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(42).सुश्री सविता मिश्रा जी
तमाशबीन
सुधा और अलका दोनों पड़ोसी एक दूजे के सुख दुःख में हमेशा साथ होते। सुधा की बिटिया जब-जब बिमार पड़ती, अलका का कन्धा उसे हमेशा सुकून देने को तैयार रहता।
अचानक एक दिन बिटिया का इंतकाल हो गया । बहुत भीड़ इकट्ठा हुई। दो दिन बाद जब अलका सुधा के घर आई तो उसको देखते ही सुधा फफक कर बोली, "मेरे दुःख में तू भी छोड़ दी मुझे अकेला। "
"अरे नहीं , उस दिन की भीड़ देख मुझे लगा तेरे अपने तो बहुत है । वो सब तेरा दर्द बाँट रहें होंगे। "
"कहा रे , सब को जरुरी काम ! समय कहाँ किसी के पास जो दो घड़ी मेरा दुःख बांटते । सब के सब तमाशबीन थे ; मेरे दर्द की इन्तहा देखने आये थे, देख उसी दिन चले गए ।
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आदरणीय सौरभ सर प्रस्तुति पर आपकी स्नेहिल उपस्थिति एवं सुझावात्मक प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार। दरअसल लिखते वक्त मैं स्वयं उस कथानक से साथ भावनात्मक रूप से जुड़ जाता हूँ और प्रवाह में लिख जाता हूँ। भविष्य में आपकी सीख को ध्यान में रखूंगा। आपके समीक्षात्मक मरदर्शन का दिल से आभार।
लिखते हुए मेरी समझ से सभी संवेदनशील लेखक डूब कर ही लिखते हैं आदरणीय सुशील सरनाजी. किन्तु, साहित्यिक व्यावहारिकता सचेत रखती है. उसका प्रखर होना ही रचनाकर्म को सदिश रखता है.
मेरे कहे को मान देने केलिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय.
आपके कथन पर पूर्ण सहमति है सर। इस मार्गदर्शन का हार्दिक आभार सर।
अवश्य, आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानीजी.
ऐसा प्रयास होता रहता है. लेकिन व्यक्तिगत मसरूफ़ियत आड़े आती है. अन्यथा हम सब कितना कुछ सीखते हैं पटल पर आकर !
शुभ-शुभ
आ० सौरभ भाई जी एक बात जो मैंने बहुत शिद्दत से महसूस की, बहुत से साथी वास्तव में "तमाशबीन" शब्द का अर्थ ही नहीं समझ पाएI जिसके कारण बात बन न पाई I काफी उत्साही साथी आज भी लघुकथा विधा की मूलभूत बातों से गाफ़िल दिखेI बहरहाल, जिनमे गुणात्मक सुधार होना था वह तो हुआ हीI मेरी रचना का ज़िक्र करने हेतु हार्दिक आभार, मैं इसे आज के माहौल में अवश्य ढालूंगाI वैसे ’हम आपके हैं कौन’ फिल्म (जिसे मैं अपनी पत्नी की फरमाइश पर उन्ही के साथ देखने गया था) मुझे कभी अच्छी नहीं लगी, और मैं शो के दौरान मैं कम से कम ५-६ बार कोई न कोई बहाना बनाकर सिगरेट पीने हॉल से बाहर निकला थाI जबकि "नदिया के पार" आज भी पूरी देख कर ही उठता हूँ I" :)))))
आदरणीय योगराजभाईजी, ’नदिया के पार’ आपने देखी है यह जान कर ही हम खिल कर फूल हुए जा रहे हैं. क्योंकि इस फ़िल्म के जो दोनों गाँव हैं वे मेरी पैत्रिक भूमि वाले गाँव के एकदम पास (किमी में भी इकाई अंक) के गाँव हुआ करते थे. उस फ़िल्म की कहानी केशव प्रसाद मिश्र की है जो वहीं के थे. और, गोविन्द मुनीस, जिन्होंने इसे निर्देशित किया था, फ़िल्म को ज़मीन की सोंधी खुश्बू में भरपूर पगने दिया था.
उसके नये संस्करण ’हम आपकेहैं कौन’ में आज का माहौल था. लेकिन गाँव से कटे जीवन का क़ाग़ज़ीपन तो आना ही था. एक गीत भी है न ?
रंग ले आयेंगे, रूप ले आयेंगे, काग़ज़ के फूल..
खुश्बू कहाँ से लायेंगे ?
:-)
जो सादगी, चुलबुलापन और अपनापन राम मोहन के अभिनय से झलकता है आलोक नाथ तो उसके आस पास भी नहीं साहिब जीI "नदिया के पार" में देश की सुगंध है जबकि "हम आपके हैं कौन" हाई-फाई फॅमिली सोप हैI और हम ठहरे ज़मीन से जुड़े लोगI यह जानकार कि आप "नदिया के पार" के दोनों गाँव से जुड़े हुए हैं, हमारी श्रद्धा बहुगुणित हो गई इस फिल्म के प्रति, वो कहा गया है न कि "उस गाँव पे स्वर्ग भी सदके - जहाँ पे मेरा यार वसदाI" :))))
क्या याद दिलायी आपने भाईजी.. आय-हाय हाय-हाय !
Interesting past memories always beautify mind, not only self but others too. Nice sharing, thank you for it.
आदरणीय, अब अन्य भाई-बहनों के लिए इसका हिन्दी तर्ज़ुमा भी कर दीजिये.. :-))
विल्कुल ! आदरणीय महोदय , यह इस प्रकार है --
" पिछली मनोरंजक स्मृतियाँ स्वयं के मन को ही नहीं दूसरों के मन को भी महका देती हैं। सुन्दर कथोपकथन। इसके लिए आपको धन्यवाद। "
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