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बडी सार्थक एवं सुलझी कथा,काश अभिभावक समझ सके।बहुत बहुत धन्यावाद।
आदरणीय सुधीरजी, आपकी प्रस्तुति सम्यक प्रवहमान है. आम विषयों के इतर भी बच्चों की रुचि हुआ करती है. यह जानते सभी हैं लेकिन आजकी गलाकाट दौड़ में कोई माता-पिता अपने बच्चे को अकादमिक रूप से कमज़ोर नहीं देखना चाहता. जबकि यह मात्र भ्रामक छलावा है कि अकादमी शिक्षा ही किसी को भौतिक सफलता दिलाती है.
कुछ टकण त्रुटियाँ हैं. उन्हें अवश्य सुधार लीजियेगा.
सादर
साधारण क्षण को असाधारण बना दिया आपने भाई सुधीर द्विवेदी जी, इस जोरदार रचना के सृजन हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें|
हर बच्चा विशिष्ट होता है, कोई किसी क्षेत्र में तो कोई किसी क्षेत्र में, सन्देश देती हुई एक बेहतरीन लघुकथा प्रस्तुत हुई है, बहुत बहुत बधाई आदरणीय सुधीर जी.
बहुत बारीकी से मानव मन के मनोभावों को प्रस्तुत किया है आपने इस लघुकथा में, बहुत बहुत बधाई आपको
बेटी के हाँथ पीले करने के इन्तजार में बैठे शांतिलाल को कुछ खबर मिली तो उनकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया। उन्होंने बेटी को आवाज लगाई?और तड़ाक से एक थप्पड़ गाल पर रसीद कर दिया।
गुलाबी गाल,और डबडबाई आँखों ने प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। "मेरा क्या कसूर है?"
" तू पार्टी में उन लड़कियों के साथ थी?"
"पापा न तो वे मेरी सहेलियाँ है,न ही मेरा उनसे कोई वास्ता है।आपको लाल, पीला होने की जरूरत नहीं है।"
"बेटा जरा सी भी ऊंच नीच हो गई तो..."
"पापा आप निश्चिंत रहें, मैने कोई सतरंगी सपने नहीं पाल रखे हैं।आपकी शिक्षा और संस्कार इतने गहरे पैठ किये हैं कि,मुझे कोई सुनहरा मृग ललचा ही नहीं सकता।"
पापा मैं सीता तो नहीं,पर लक्ष्मण रेखा मुझे दिखाई देती है।
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
आदरणीय पवन जी, आपकी लघुकथा ने मुग्ध कर दिया. इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
उत्साह वर्धक टिप्पणी हेतु आभार आदरणीय।
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