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कुछ तो कहो, कुछ जवाब दो -- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

221—2121—1221—212

 

जुगनू से मांगने को चला है कि ताब दो

बेचैन हो गया है बशर  फिर नकाब दो

 

इस तिश्नगी से हम न कभी मुतमईन थे

जामिन से कब कहा था कि गोया सराब दो

 

किसने बदन से आपके चमड़ी उतार ली

खामोश क्यूं हो, कुछ तो कहो, कुछ जवाब दो?

 

दैरो-हरम में आ गए हो दिल निकाल के

अब ये तो मत कहो कि मुझे भी शराब दो

 

माना कि बेजुबान है, नादाँ, गरीब है

इंसान का उसे भी कभी तो खिताब दो

 

तुम भी हकीक़तों की हिमायत करों मगर

जीने को सब्ज बाग़ के इफरात ख्व़ाब दो    

 

इस जंग की फतह को जरा-सा परे रखों

कुल खर्च आदमी जो हुए है,  हिसाब दो

 

बस दहशतों के जिक्र है हर एक वर्क पर

चैनो-सुकूं की एक तो सच्ची किताब दो

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 25, 2015 at 4:24am

आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल की सराहना मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 27, 2015 at 7:25am

आदरणीय मिथिले भाई , लाजवाब गज़ल कही है , सभे शे र बहुत सुन्दर हुये हैं । आदरणीय समर भाई जी की इस्लाह भी खूब है , गज़ल की रंगत और सुधर गई है । आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

मै एक बात और जोड़ना चाहता हूँ विचार के लिये --

जुगनू से मांगने को चला है कि ताब दो    ---  मांगने चला है क्या वही अर्थ नहीं देता जो मांगने को चला है  दे रहा है । एक बार सोच लीजियेगा ।

गज़ल के लिये आपको पुनः हार्दिक बधाइयाँ ।


 

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 27, 2015 at 12:15am
प्रिय मिथिलेश जी , बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है, कुछ ख़्वाब कुछ खयालात भी जरूरी हैं जिंदगी के लिए , बहुत बहुत बधाई , सादर।
Comment by Ravi Shukla on August 26, 2015 at 1:59pm

आदरणीय मिथिलेश जी आदाब

आपकी एक और ग़ज़ल पढ़कर बहुत ही अच्‍छा लगा समूचे कथ्‍य और शिल्‍प पर दाद कुबल करें । इसी ग़ज़ल पर हुई चर्चा से काफी कुछ सीखने को मिला और आपकी ग़ज़ल में और भी निखार आया । अगर चर्चा के दौरान हम मौजूद होते तो हमारा भी आग्रह आप ही की तरह होता । समर साहब ने आपके आग्रह का मान रखा । आभार उनका । और आपका भी इन अश्‍आर के लिये 

इस जंग की फतह को जरा-सा परे रखों

कुल खर्च आदमी जो हुए है,  हिसाब दो

जंग के जोश में ये होश वाली बात कहां याद रहती है सलाम आपकी सोच को

माना कि बेजुबान है, नादाँ, गरीब है

इंसान का उसे भी कभी तो खिताब दो     गरीब के हक में खड़े  आपके हौसले को सलाम

बधाई सुन्‍दर ग़ज़ल के लिये


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 25, 2015 at 12:04pm

संशोधित ग़ज़ल 

जुगनू से मांगने को चला है कि ताब दो

बेचैन हो गया है बशर  फिर नकाब दो

 

इस तिश्नगी से हम तो कभी थे न मुतमइन

जामिन से कब कहा था कि आबे-सराब दो

 

किसने बदन से आपके चमड़ी उतार ली

खामोश क्यूं हो, कुछ तो कहो, कुछ जवाब दो?

 

दैरो-हरम में आ गए हो दिल निकाल के

अब ये तो मत कहो कि मुझे भी शराब दो

 

माना कि बेजुबान है, नादाँ, गरीब है

इंसान का उसे भी कभी तो खिताब दो

 

तुम भी हकीक़तों की हिमायत करों मगर

जीने को सब्ज बाग़ के दो-चार ख्व़ाब दो    

 

इस जंग की फतह को जरा-सा परे रखों

कुल खर्च आदमी जो हुए है,  हिसाब दो

 

बस दहशतों के जिक्र वरक-दर-वरक मिले

चैनो-सुकूं की एक तो सच्ची किताब दो


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 25, 2015 at 10:55am

आदरणीया कांता जी, ग़ज़ल की सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. 

//" चैनो - सुकूं की किताब "की तलाश के लिए । मिले ना मिले ख्वाहिशों पर तो हक बनता ही है अपना ।// इस टीप के हवाले से-

आसान तो नहीं है जवानी का लौटना 

इक बार तो हमें भी मगर फिर खिज़ाब दो 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 25, 2015 at 10:47am

आदरणीय समर कबीर जी, मार्गदर्शन और अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार 

Comment by kanta roy on August 25, 2015 at 9:26am

किसने बदन से आपके चमड़ी उतार ली खामोश क्यूं हो, कुछ तो कहो, कुछ जवाब दो?......... वाह ! वाह ! क्या खूब तेवर है गजल के ..... बधाई आपको " चैनो - सुकूं की किताब "की तलाश के लिए । मिले ना मिले ख्वाहिशों पर तो हक बनता ही है अपना ।

Comment by Samar kabeer on August 24, 2015 at 10:01am
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,

इस तिश्नगी से हम तो कभी थे न मुतमइन
जामिन से कब कहा था कि आबे-सराब दो

:- ये अब ठीक हो गया है ।

तुम भी हकीक़तों की हिमायत करों मगर
जीने को सब्ज बाग़ के तादादे-ख्व़ाब दो / गमख्वार ख्व़ाब दो / बेहद्द ख्व़ाब दो/ दो चार ख्व़ाब दो/

:- "जीने को सब्ज़ बाग़ के दो चार ख़्वाब दो"

बस दहशतों के जिक्र वरक़-दर-वरक़ मिले
चैनो-सुकूं की एक तो सच्ची किताब दो

:- ये शैर भी अच्छा हो गया है

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 24, 2015 at 12:35am

बेशक हकीक़तों की हिमायत करों मगर
जीने को सब्ज बाग़ के हर बार ख्व़ाब दो 

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