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दुनिया बिलकुल छोटी है (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

22---22---22---2

 

फूलों में सरगोशी है

सच की खुशबू फैली है

 

मुमकिन को भी मायूसी

नामुमकिन कर देती है

 

चलती है बस ताकत की

लागर तो फरयादी है

 

मेरी जाँ की दुश्मन भी

मेरी ही नादानी है

 

मत पूछो क्या ग़ज़लों में ?

ये दुनिया ही दूजी है

 

मैंने पूछा कैसी हो ?

जाने माँ क्यों रोती है

 

सूरत में आवाजें हैं

सीरत में ख़ामोशी है

 

ख़्वाब मुफ़स्सल है लेकिन

दुनिया बिलकुल छोटी है

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 25, 2015 at 4:23am

आदरणीय सुनील जी,ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 25, 2015 at 4:23am

आदरणीय गुमनाम जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यवाद. 

Comment by shree suneel on August 30, 2015 at 10:23am
छोटी बह्र में बङी बात अँटा गये.. . बहुत ख़ूब हुई है ग़ज़ल.
मैंने पूछा कैसी हो ?
जाने माँ क्यों रोती है...
बधाई लें आदरणीय मिथलेश वामनकर सर जी. सादर.
Comment by gumnaam pithoragarhi on August 29, 2015 at 1:57pm

वाह खूब है ,,,,,,,,,,,


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 28, 2015 at 1:05am

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी सराहना हेतु आभार. आपने सही कहा. आपकी इस्लाह अनुसार संशोधन कर रहा हूँ. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 28, 2015 at 1:04am

आदरणीया राजेश दीदी ग़ज़ल की सराहना के लिए हार्दिक आभार. नमन 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 27, 2015 at 9:19pm

अच्छे अश’आर हुए हैं आदरणीय मिथिलेश जी। एक वचन, बहुवचन के चक्कर में कई अश’आर गड़बड़ा रहे हैं।

दुनिया बिलकुल छोटी है

खुशियाँ वापिस मिलती है / हैं

 

खुशियाँ वापिस मिलती है / हैं

आखिर गम की बेटी है / हैं

 

माज़ी चाहे जैसा हो

यादें प्यारी लगती है / हैं

सुझाव ये है कि इसे दो ग़ज़लों में बाँट दीजिए। एकवचन वाली अलग और बहुवचन वाली अलग। तीन शे’र तो यही हो जाएँगें। सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 27, 2015 at 1:00pm

मिथिलेश भैया ,छोटी बह्र पर आपकी ग़ज़ल पहली बार देख रही हूँ ग़ज़ल अच्छी है जो मैं ध्यान दिलाना चाहती थी दिनेश भैया कह चुके उसे निःसंदेह आप दुरुस्त कर ही लेंगे बहुत बहुत बधाई 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 26, 2015 at 2:22pm

आदरणीय रवि जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार. आपने सही कहा कि अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलकर ये प्रयास किया है. ये पूरी ग़ज़ल एक बार में लिखी है. वैसे  तो ताज़ी ग़ज़ल लेकिन अंदाज़े-बयां पुराना है. शायद .. पुनः प्रयास करता हूँ. छोटी बह्र का बिलकुल नया अभ्यासी हूँ. सचेत करने के लिए हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 26, 2015 at 2:19pm

आदरणीय हर्ष जी ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार.

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