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जैसा बीज़ वैसी फ़सल ( लघुकथा )

"जानती है ? नया मेहमान आने वाला है सुनकर, माँ-बाबूजी कितने खुश हैं । "
"और आप ? "
" हाँ , माँ कह रही थीं , बड़ी भाभी की दोनों संतानें लड़कियाँ हैं, इसलिए बहू से कहना कि वह सिर्फ़ बेटा ही जने । "
"आपने क्या कहा ? '
"कहना क्या ? मैं माँ से अलग थोड़े हूँ , और तू भी माँ की इच्छा के विरूद्ध तो जाने से रही ।"
"सो तो है , पर माँ जी की इच्छा पूरी हो , उसकी जवाबदेही आपके ही हाथों में है । "
"मेरे हाथों में ? पागल हो गई है क्या ? '
"लो भई ! साइंस ग्रेजुएट हो । इतना भी नहीं जानते , फसल वही उगती है , जिसका बीज़ डाला जाता है ।अब सरसों बोकर गन्ना तो नहीं उगा सकते न ? "

मौलिक व अप्रकाशित

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 26, 2015 at 9:15pm

बहुत ही बढ़िया और प्रभावशाली लघुकथा कही है आ० शशि बांसल जी। स्त्री को अबला के बोसीदा चोले से निकाल कर जिस तरह एक सशक्त रूप में प्रस्तुत किया गया है, वह न केवल प्रशंसनीय ही है अपितु अनुकरणीय भी है। नारी को रूढ़ियों का विरोध करना आना चाहिए। लीक से हटकर कही किसी भी सार्थक कृति को सलाम किया जाना चाहिए अत: एक लघुकथा को तौर पर इस अर्थगर्भित अभिव्यक्ति को मैं पाँच स्टार देना चाहूंगा। भाई विनोद खनगवाल जी की प्रतिक्रिया पर भाई मिथिलेश जी एवं आ० कांता रॉय जी के तर्क अकाट्य हैं, जिनका मैं भी समर्थन करता हूँ।   

Comment by kanta roy on July 26, 2015 at 1:11pm
लघुकथा लेखन में " दृष्टि " का विशेष महत्व होता है । " दृष्टि " ही चिंतन को नया आयाम दे जाता है । विस्तार पूर्ण चिंतन मन के सोच के विस्तार से ही संभव है ।

संकुचित मन और संकीर्ण विचार लघुकथा लेखन के लिये जहर के समान है । देखा गया है कि कई बार कई लेखक सिर्फ कुछ सुरक्षित विषय वस्तु को ही लेखन के लिए चुनते है और उसी को घुमा फिरा कर लघुकथाओँ का सतत निर्माण करते रहते है ।

समाज में कई सकारात्मक पहलुओं को उजागर करने की बेहद जरूरत है जन - जन में । यह भी हम लघुकथाकारों की जिम्मेदारी बनती है । जिस तरह हम बुराईयों पर लिख कर ही अपनी पीठ थपथपा लेते है कि हमने तो बडी चोट वाली लघुकथा की रचना कर ली ।

कभी ममता की बानगी पर लिख कर भी देखिए जरा । समाज में बहुत कुछ सार्थक भी हो रहा है आज .... जरा उसको भी प्रचारित किजिए एक चोट के साथ ।

सिर्फ निर्भयाओं पर ही कलम घिसने की जरूरत नहीं है साथ में समाज में सकारात्मक काम करने वालों की वजह से जो लडकियों को नया आकाश मिला है , वो हर क्षेत्र में भागीदारी कर रही है । शिक्षा में अपना परचम लहरा रही है .... उनको भी लिखने की बेहद जरूरत है जिससे एक जागृति हो समाज में ।

चरित्रहीन स्त्रियों और पुरूषों पर बहुत कलम चले है आज तक लेकिन उन पुरूषों की भी समाज में कमी नहीं है जो एक जागरूकता के लिए पहल कर रहे है । स्त्रियों के सम्मान के रक्षक बनकर उनको अपने बराबरी का दर्जा दे रहे है ।

मन का विस्तार , संकुचित सोच , संकीर्ण सोच की गाँठों को खोलने की जरूरत है । आँखों पर लगा काला चश्मा उतार कर देखिए जरा दुनिया में उतना अंधेरा भी नहीं है जिन अंधेरों के बाहर आपकी नजर नही पहुँचती है । यहाँ अंधेरों के बनिस्बत उजाले ही अधिक मिलेंगे । इसलिए कहती हूँ हमेशा कि अच्छी सोच ही अच्छी नजरिये का विस्तार करती है । सादर नमन मंच को
Comment by विनोद खनगवाल on July 26, 2015 at 9:43am

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, अनकहा भी कहे पर ही निर्भर करता है। जब अनकहे पर इतना शोध कर ही लिखा है तो यह भी स्पष्ट कर दीजिए किस लिहाज से कथा का अनकहा अपनी कही बातों पर खरा उतरता है?
शायद मेरा ध्यान उस तरफ नहीं जा पाया हो।

Comment by shashi bansal goyal on July 26, 2015 at 8:08am
मैं सभी सुधिगणों , बुद्धिजीवियों की आभारी हूँ । आप सब ने मेरी रचना को अपना अमूल्य समय देकर सराहा और खुलकर समीक्षा की ।मैंने साइंस ग्रेजुएट विशेष रूप से लिखा क्योंकि ऐसा मेरे।अनुभव में आया जो कचोट गया कि जब ये सब जानते हुए भी सीखी हुई शिक्षा को व्यर्थ कर रहे हैं तो बाकियों से क्या उम्मीद की जाये । आद कांता जी व् मिथिलेश वामनकर जी मेरी कथा के मर्म तक पहुंकब पाये । आड़ विनोद जी आप असहमत हैं तो निश्चित लेखन में कमजोरी रह गई होगी । फिर भी ये कहना चाहूँगी कि स्त्री के अंतर्मन को समझकर लिखना और उसके लिखे को पढ़ते समय कहीं न कहीं छुअन की कमी रह जाती है । मैंने इसे लिखते समय बहुत तीस और क्रोध में लिखा था क्योंकि दो रोज़ पहले समाचारपत्र में 6-7 शहरी लोगों ने सिर्फ इसी कारण या तो पत्नी को हॉस्पिटल से घर नहीं।ले गए या तलाक दे दिया या फिर प्रताड़ित करते हैं और उसी आवेश में इसे लिखा कि सदियाँ बीत गई पुरुष को स्त्री को दोष देते देते तो क्यों न अब स्त्री ही इसका दोष पुरुष को देना शुरु कर दे । ताकि देर सबेर उसे अहसास हो जाये कि अब स्त्री समझदार हो गई है उसे मूर्ख नहीं बनाया जा सकता ।रहा सवाल फसल का तो वह प्रतीक है समझाने में लिए न केवल पति को बल्कि साधारण पाठकों को भी ।फसल शब्द का उदाहरण ऐसा है जिसे एक ग्रम्मीण को भी समझाने में बहुत आसानी होती है । चूँकि मैंने पहले ही कहा मुझे बहुत टीस पहुंची थी इसलिए इसे लिखा जिसका उद्देश्य हर वर्ग तक अपनी बात पहुँचाना था । प्रतीक और वास्तविकता में बहुत बड़ा फर्क है उन्हें एक कर के नहीं देखा जाना चाहिये । बौद्धिकता के लिहाज़ से हो सकता है सबकी सहमति न हो पर वे जिम्मेदार हैं ऐसा कभी अपने जीवन में नहीं करेंगे परंतु सामान्य सोच वाले मनुष्य को इससे बेहतर प्रतीक से नहीं समझाया जा सकता । अंत में कहूँगी खुलकर आलोचना समीक्षा करिये सबका मुक्त हृदय से स्वागत है बस रचना को बेटे के नहीं बेटी की जीवन रक्षा के सन्दर्भ से ही जोड़कफ देखिये । क्योंकि अमूमन हर स्त्री इस दर्द को सहती है परिवार में नहीं तो समाज में । पुनः सभी सुधिजनों का आभार एवं धन्यवाद । सादर ।
Comment by Archana Tripathi on July 26, 2015 at 1:29am
क्षमा करे विनोद खनगवाल जी ,यहाँ गर्भस्थ शिशु की तुलना फसल से की जा रही हैं जो आपको आपत्तिपूर्ण लग रही हैं, लेकिन बच्चों को फूल से भी संबोधित किया जाता हैं जैसे यह किसकी बगिया का फूल हैं।रही आरोप से बचने की बात तो पत्नी साइंस ग्रेजुएट का तर्क देकर स्पष्ट कर दे रही हैं की संतान का पुत्र या पुत्री होना पुरुष पर निर्भर करता हैं ना की स्त्री पर।सादर धन्यवाद

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 25, 2015 at 11:42pm

आदरणीय विनोद जी, क्षमा चाहता हूँ कि अपनी बात आपको स्पष्ट नहीं समझा पाया किन्तु आपकी बात से मैं पूर्णतः असहमत हूँ. खैर ये अपनी अपनी पाठकीय सोच है... अब देखियें न जिसे आप एक लड़की का अपमान मान रहे है वह मेरी दृष्टि में प्रतीकों का उत्कृष्ट प्रयोग है. सादर 

//केवल पत्नी अपने आपको आरोप लगने से बचाने के लिए तर्क दे रही है न कि अपने पेट में पलने वाले बच्चे(हो सकता है लड़की भी हो) के साथ खड़ी नजर नहीं आ रही है ।//

उस तर्क के मर्म तक शायद मैं खुद को पहुँचा हुआ महसूस कर रहा हूँ.दरअसल बिम्ब और प्रतीकों के प्रयोग से जो लघुकथा में अनकहा रह जाता है वहीँ लघुकथा को सशक्त बनता है. इस बात का उल्लेख कई बार हुआ है यथा -

दिनांक 17/02/2008 अंतर्राष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन रायपुर  द्वितिय सत्र में ‘लघुकथा का वर्तमान’ विषय पर डॉ. अशोक भाटिया ने बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया। श्री भाटिया ने संवेदना से संचालित रचनात्मक विवेक को प्राथमिकता दी। लघुकथा में कुछ अनकहा भी रह जाता है। यह अनकहा लघुकथा को सशक्त बनाता है।

 

‘लघुकथा के नए आयाम’ में सूर्यकान्त नागर कहते है कि वस्तुत: लघुकथा में जो अनकहा रह जाता है या जिसके कहने से लेखक अपने को बड़ी चतुराई से बचा लेता है, वही महत्त्वपूर्ण और माननीय होता है। 

 

पंजाबी साहित्य अकादमी,लुधियाना 15 अप्रैल 2007 को पंजाबी साहित्य अकादमी के सभागार में अंतर्राष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन में डा॰सूर्यकान्त नागर ने सचेत किया कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पादों के साथ अपने विचारों को भी हमारे मन-मस्तिष्क पर थोप रही हैं। रचना कला एवं रचनात्मक कल्पना के साथ हमारे सामने आए। रचना में जो कुछ अनकहा होता है , वही रचना की सबसे बड़ी ताकत है।

 

अपने आलेख में  डॉ0 शंकर पुणतांबेकर कहते है प्रभावात्मक शैली के अनोखेपन में हैं–सूचकता, सांकेतिकता और व्यांग्यात्मकता। सपाटबयानी में कथ्य कमज़ोर बना रह जाता है। अभिधा शक्ति की अपनी सीमा है, व्यंजना शक्ति की नहीं। व्यंजना बिंब–प्रतीक से लेकर लोककथा–पुराणकथा–इतिहासकथा सभी को वैदग्ध्य की दृष्टि से अपनाती है। 

 

आदरणीय योगराज प्रभाकर सर अपने आलेख ने लिखते है –

लघुकथा में जो कहा जाता है वह तो महत्वपूर्ण होता ही है, किन्तु उससे भी महत्वपूर्ण वह होता है जो "नहीं कहा जाता". लघुकथाकारों के लिए इस "जो नहीं कहा जाता" को समझना बहुत आवश्यक है। दरअसल इसके भी आगे तीन पहलू हैं  जिन्हें आसान शब्दावली में कहने का प्रयास किया है :


१. "जो नहीं कहा गया" - अर्थात वह इशारा जिसके माध्यम से एक सन्देश दिया गया हो या बात को  छुपे हुए ढंग या वक्रोक्ति के माध्यम से कही गयी हो। 

 

सादर 

Comment by विनोद खनगवाल on July 25, 2015 at 11:01pm
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, साइंस ग्रेजुएट वाली बात से जो साबित करने की कोशिश की गई है वह मैंने अपनी पहली टिप्पणी में स्पष्ट भी किया है। अगर एक बार दोबारा कथा पर नजर डालेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा यह केवल पत्नी अपने आपको आरोप लगने से बचाने के लिए तर्क दे रही है न कि अपने पेट में पलने वाले बच्चे(हो सकता है लड़की भी हो) के साथ खड़ी नजर नहीं आ रही है बल्कि लड़की की फसल से तुलना करके उनका अपमान जरूर कर रही है।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 25, 2015 at 8:19pm

//लघुकथा में लड़के की सोच रखने वाले पति और उसकी माँ पर कोई व्यंग्य किया गया होता जिससे उनको भी अपनी सोच पर सोचना पड़े तो कथा का रंग ही अलग होता जोकि कथा में स्पष्ट नहीं हो पाया है//

आदरणीय विनोद जी लघुकथा को एक बार पुनः पढ़ जाइए शायद आपको अपने इस कथन में संशोधन करना पड़े. शायद साइंस ग्रेजुएट के व्यंग्य और मंतव्य का आशय स्पष्ट नहीं हुआ है? 

Comment by kanta roy on July 25, 2015 at 4:32pm
// "सो तो है , पर माँ जी की इच्छा पूरी हो , उसकी जवाबदेही आपके ही हाथों में है । "//........ पत्नी ने परिस्थितियों को भाँपते हुए बेहद सावधानी से कटाक्ष किया है अपने पति पर ....... लेखिका की लेखनी यहाँ बडी ही कमाल की हुई है ।

// "मेरे हाथों में ? पागल हो गई है क्या ? '// ....... पति का अपने बचाव के लिये बौखला सा जाना , क्या सुंदर भाव हुए है यहाँ भी ...... वाह !!!!


// "लो भई ! साइंस ग्रेजुएट हो । इतना भी नहीं जानते , फसल वही उगती है , जिसका बीज़ डाला जाता है ।अब सरसों बोकर गन्ना तो नहीं उगा सकते न ? // .......आज के समाज की पढी लिखी बौद्धिक क्षमता युक्त एक स्त्री का चेहरा रोपित हुआ है कि किस चतुराई से स्त्री ने बिना लाठी के ही साँप मार लिया ।

यह कथा बेहद गुढतम भाव लिये एकदम स्पष्ट बनी है । इस कथा की किसी भी पंक्ति पर संदेह करना मतलब अपनी सोच के संकुचित दायरों को उभारना है । बधाई बारम्बार आपको आदरणीया शशि जी इस कथा के लिये
Comment by saalim sheikh on July 25, 2015 at 3:58pm

बहुत ख़ूब !!!! बधाई !

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