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कितना तुमको जीना है //रवि प्रकाश (Kitna Tumko Jeena Hai By Ravi Prakash)

सदियाँ बीत गई हैं फिर भी,जीने का आधार नहीं;
धड़कन लीक बदलती है पर,सांसों में आभार वही।
गरमी के खेमे उठ जाते,अगले पल में रिमझिम है;
जग के झूठे व्यापारों में,परिवर्तन ही अन्तिम है।
दुख की दीवारें पक्की हैं,सुख का परदा झीना है।
अपने में ही सब कुछ हो कर,कितना तुमको जीना है॥
सागर होना बहुत सरल है,नदिया बन गाना मुश्किल;
शिखरों सा उठना संभव है,गल कर बह जाना मुश्किल।
छाले भी सहलाने होंगे,गिरती-पड़ती राहें हैं;
सुर में गा पाना बहुत कठिन,स्वर में तपती आहें हैं।
पीड़ा की चिरती चादर को,हिचकी से क्यों सीना है।
अपने में ही सब कुछ हो कर,कितना तुमको जीना है॥
रोज़ कुँआ पी जाते लेकिन,झील आ खड़ी होती है;
धारा में बह जाते लेकिन,थकन वहाँ भी होती है।
एक स्वप्न भूशायी होता,कितने उगते आते हैं;
मिट्टी में आस नहीं मिलती,प्राण मगर मिल जाते हैं।
अधरों के द्वार खड़ा प्याला,जग ने अक्सर छीना है।
अपने में ही सब कुछ हो कर,कितना तुमको जीना है॥
दम भर में ओझल हो जाए,हम जिसका दम भरते हैं;
पल-पल जितना जी लेते हैं,पल-पल उतना मरते हैं।
किसकी छत पर छाया लेटे,किसको दर पे धूप मिले;
चलती दुनिया की चालों में,कितने ही बहरूप मिले।
मंज़िल का चाव नहीं सच्चा,रस्ता और पसीना है।
अपने में ही सब कुछ हो कर,कितना तुमको जीना है॥
कुछ भी निश्चित नहीं यहाँ पर,कौन कहाँ तक जाएगा;
पथ के फेरों से आतंकित,पथिक कहाँ थक जाएगा।
चिंगारी पर गिरते-गिरते,कितनी देर मचल पाओ;
आमंत्रण ख़त्म नहीं होते,जितनी दूर निकल जाओ।
जाने कितनी झनकारों में,बजती मन की वीना है।
अपने में ही सब कुछ हो कर,कितना तुमको जीना है॥
हवा झरोखों से बहने दो,घर के वातायन खोलो;
तिल-तिल जो गलता जाता है,अंतर में उसे टटोलो।
ग़ज़लों की बहरों में रच कर,कविता तुमको गानी है;
तुम पर मिटने को आतुर है,उसकी धड़कन पानी है।
फिर डगर तुम्हारी बाँहें हैं,नगर तुम्हारा सीना है।
अपने में ही सब कुछ हो कर,कितना तुमको जीना है॥

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Ravi Prakash on July 26, 2013 at 5:17pm
धन्यवाद।
Comment by Ravi Prakash on July 24, 2013 at 10:23pm
thanks
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 20, 2013 at 9:17am

"एक स्वप्न भूशायी होता,कितने उगते आते हैं;
मिट्टी में आस नहीं मिलती,प्राण मगर मिल जाते हैं।..

"आदरणीय..रवि प्रकाश जी,.. सरल,सहज, सुंदर व् भावनात्मक रचना पर बधाई !!

Comment by Ravi Prakash on July 18, 2013 at 7:03am
सभी विद्वत्जनों का सराहना एवं उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।
Comment by राजेश 'मृदु' on July 17, 2013 at 5:29pm

सागर होना बहुत सरल है,नदिया बन गाना मुश्किल;
शिखरों सा उठना संभव है,गल कर बह जाना मुश्किल।

ढेरों बधाई आपको इस सुंदर रचना पर, सादर

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 17, 2013 at 1:26pm

आदरणीय रवि प्रकाश जी वाह क्या कहने पंक्ति दर पंक्ति भाव से ओतप्रोत हैं बहुत ही सहजता एवं सुन्दरता से आपने इस रचना का निर्माण किया है, मुझे कहीं कहीं प्रवाह भंग लगा. बहरहाल इस सुन्दर रचना पर ढेरों बधाई स्वीकारें.

Comment by vijay nikore on July 17, 2013 at 1:17pm

सुन्दर रचना के लिए बधाई, आदरणीय।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by विजय मिश्र on July 17, 2013 at 12:24pm
"अपने में ही सब कुछ हो कर,कितना तुमको जीना है॥" इस एक वाक्य से ही रचना की गरिमा समझी जा सकती है . प्रगाढ़ रचना है और अपने अंश-अंश में जीवन के मर्मों को उधेड़ता बढता है . रवि प्रकाशजी ,मेरा नमन स्वीकारें .
Comment by दिलीप कुमार तिवारी on July 16, 2013 at 11:10pm

बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 16, 2013 at 10:14pm

आ0 रवि प्रकाश भाई जी, सुन्दर रचना।  हार्दिक बधाई स्वीकारें।   सादर,

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