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गंगे ! (रवि प्रकाश)

माँ वो है-
जो जन कर जुड़ जाती है
चेतना के अंधकूपों में भी
अपने जने का करती है पीछा,
एक सूत्र बन कर संतति से हो जाती है तदाकार,
पालना ही जिसका
सार्वत्रिक,सार्वभौमिक और शाश्वत संस्कार;
शायद इसीलिए हमारे
उन दिग्विजयी पड़दादाओं ने
तेरे कगारों पर दण्डवत कर के
उर्मिल जल की
अँजुरी भर के
कोई संकल्प किया था
और बुदबुदाये थे कितने ही मंत्र अनायास
तुझे माँ कह कर।
वो शायद आदिम थे
इसीलिए भ्रमित थे,असभ्य थे
और हम सभ्य हैं
क्योंकि हमने साफ कहा-
"तू माँ है तो-
तेरा बस एक कोना है,
वहाँ जो मिल जाए
खुशी से ले ले,
रोना भी यूँ कि कराह निकले न सिसकी
क्योंकि हमारी सभ्यता में ख़लल पड़ता है;
श्लोकों का ज़माना बीत गया
भोजपत्रों के साथ ही,
अब तो साँसें भी 'आनलाइन' चलती हैं
और 'गूगल-ग्लास' से
तू क्या देखेगी दुनिया?
वैसे भी माँएं जब बूढ़ी हो जाती हैं
और उनके पास रह जाता है
बस पानी,खाँसी और तकिया,
तो उनके सोए रहने में ही भलाई है,
प्रश्न पूछना बेसमझी है,बेहयाई है।"
मगर छाया देता है जो
कर सकता है अनाथ भी;
ऐसे ही किसी बिन्दु पर माँ ने ली होगी करवट
पिता का खुला होगा तीसरा नेत्र
धीरता का टूटा होगा सदियों पुराना अवरोध,
फिर रेले में कहाँ होता है सौंदर्य-बोध,
कहाँ होती है धुन
दलता है गेहूँ,पिसता है घुन,
सुन्दर-कुरूप का मिट जाता है भेद,
घुट जाते हैं सारे स्तोत्र
बाक़ी रह जाता है खेद।
निःसंदेह फिर उठेंगे स्तंभ
छतें,दीवारें,छज्जे,शिखर,गुम्बद भी
और जलेंगे दीपदान,धूपदान,
जहाँ बुझे हैं चिराग़
वो ख़ुद लाए चिंगारी;
हमें इत्मीनान है कि
वो हम नहीं थे-
जो घुटे हैं,तड़पे हैं,चीखे हैं,उखड़े हैं।
माँ, तुम भी ढूँढ़ लेना कोई ठौर,
मूँद लेना आँखें
कुछ बरस या कुछ सदी और॥

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Ravi Prakash on July 26, 2013 at 5:18pm
सराहना के लिए धन्यवाद!!
Comment by annapurna bajpai on July 23, 2013 at 10:27pm

माँ गंगा की व्यथा पर लिखी गई सामयिक परिदृश्य को परिलक्षित करती आपकी कविता बहुत ही बढ़िया है , बधाई आपको आदरणीय ।  

Comment by ajay yadav on July 21, 2013 at 12:04pm

श्री रवि प्रकाश जी ,

बहुत ही सार्थक लेखन |

"भोजपत्रों के साथ ही,
अब तो साँसें भी 'आनलाइन' चलती हैं
और 'गूगल-ग्लास' से
तू क्या देखेगी दुनिया?
वैसे भी माँएं जब बूढ़ी हो जाती हैं
और उनके पास रह जाता है
बस पानी,खाँसी और तकिया,
तो उनके सोए रहने में ही भलाई है,
प्रश्न पूछना बेसमझी है,बेहयाई है।"
प्रश्न पूछना बेसमझी है,बेहयाई है।""""    मार्मिक पंक्तियाँ

Comment by Ravi Prakash on July 18, 2013 at 5:57pm
धन्यवाद

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 18, 2013 at 3:27pm

इस सारगर्भित अभिव्यक्ति पर मेरी हार्दिक बधाई लें, आदरणीय

बहुत ही प्रासंगिक प्रश्न   --विकास का अर्थ स्वार्थपूरित संग्रह और सम्बन्ध निर्वहन मात्र है क्या ? -- को सार्थक शब्द मिले हैं.   आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 15, 2013 at 10:23am

मातृ स्वरूपा प्रकृति की अवहेलना और आधुनिकता की चकाचौंध में माँ को उपेक्षित कर दरकिनार कर दिया जाना सापेक्षता में ले कर चलना और फिर प्रकृति का प्रकोप... सामयिक परिपेक्ष्य में बहुत ही अलग दृष्टिकोण से लिखी गयी अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by Ravi Prakash on July 14, 2013 at 9:37pm
उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद !!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on July 14, 2013 at 9:07pm

आदरणीय सुंदर रचना.....

सामयिक परिदृश्य को नये नजरिये से देखा गया, वाह !!!

Comment by रविकर on July 14, 2013 at 8:37pm

सुन्दर भाव
आदरणीय-

परम-पिता के क्रोध से, नहीं मूर्ख मन चेत |
माँ के आंसू देखकर, जग-माँ लेत लपेट |

Comment by Ravi Prakash on July 14, 2013 at 5:34pm
thanks a lot sir.

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