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"OBO लाइव महा उत्सव" अंक १२ (Now Closed with 1070 Replies)

 सभी साहित्य प्रेमियों को

प्रणाम !

साथियों जैसा की आप सभी को ज्ञात है ओपन बुक्स ऑनलाइन पर प्रत्येक महीने के प्रारंभ में "महा उत्सव" का आयोजन होता है, उसी क्रम में ओपन बुक्स ऑनलाइन प्रस्तुत करते है ......

 

"OBO लाइव महा उत्सव" अंक  १२  

इस बार महा उत्सव का विषय है "बचपन"

आयोजन की अवधि :- ७ अक्तूबर २०११ दिन शुक्रवार से ०९ अक्तूबर २०११ दिन रविवार तक महा उत्सव के लिए दिए गए विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी अप्रकाशित रचना काव्य विधा में स्वयं लाइव पोस्ट कर सकते है साथ ही अन्य साथियों की रचनाओं पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते है |

उदाहरण स्वरुप साहित्य की कुछ विधाओं का नाम निम्न है ...
  1. तुकांत कविता
  2. अतुकांत आधुनिक कविता
  3. हास्य कविता
  4. गीत-नवगीत
  5. ग़ज़ल
  6. हाइकु
  7. व्यंग्य काव्य
  8. मुक्तक
  9. छंद [दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका वग़ैरह] इत्यादि
साथियों बड़े ही हर्ष के साथ कहना है कि आप सभी के सहयोग से साहित्य को समर्पित OBO मंच नित्य नई बुलंदियों को छू रहा है OBO परिवार आप सभी के सहयोग के लिए दिल से आभारी है, इतने अल्प समय में बिना आप सब के सहयोग से कीर्तिमान पर कीर्तिमान बनाना संभव न था |

इस १२ वें महा उत्सव में भी आप सभी साहित्य प्रेमी, मित्र मंडली सहित आमंत्रित है, इस आयोजन में अपनी सहभागिता प्रदान कर आयोजन की शोभा बढ़ाएँ, आनंद लूटें और दिल खोल कर दूसरे लोगों को भी आनंद लूटने का मौका दें |


अति आवश्यक सूचना :- ओ बी ओ प्रबंधन से जुड़े सभी सदस्यों ने यह निर्णय लिया है कि "OBO लाइव महा उत्सव" अंक १२ जो तीन दिनों तक चलेगा उसमे एक सदस्य आयोजन अवधि में अधिकतम तीन स्तरीय प्रविष्टियाँ   ही प्रस्तुत कर सकेंगे | साथ ही पूर्व के अनुभवों के आधार पर यह तय किया गया है कि नियम विरुद्ध और गैर स्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये और बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकेगा, यह अधिकार प्रबंधन सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा और जिसपर कोई बहस नहीं की जाएगी |


( फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो ७ अक्तूबर दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा )

यदि आप अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.com पर जाकर प्रथम बार sign up कर लें |

( "OBO लाइव महा उत्सव" सम्बंधित पूछताक्ष ) 


मंच संचालक

श्री धर्मेन्द्र शर्मा (धरम)

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Replies are closed for this discussion.

Replies to This Discussion

आद धरम भाई...

आपकी बिम्बों और प्रतीकों की सार्थक विवेचना रचना के प्रभाव और आनंद को आत्मसात करने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण माध्यम बन गया है.... आपने एक एक पंक्ति का जिस संवेदनशीलता से विश्लेषण किया है वह सचमुच एक अति संवेदनशील ह्रदय ही कर सकता है... आपका सादर आभार...

आपका पुन: आभार भाई संजय मिश्रा जी...मैंने अपनी और से एक ईमानदार प्रयास किया है, आपको अच्छा लगा मेरा श्रम सार्थक हुआ मानिए.

बेहतरीन समीक्षा, सादर नमन !

आपका आभारी हूँ....आदरणीय रवि जी सादर

बहुत खूब सौरभ जी, नमन करता हूँ इस कविता को

धर्मेन्द्र भाई जी, आपका सादर आभार.

आऽऽऽऽऽह...    आह ज़माना ! ..
कंधे-गोदी, नेह-छोह
मनोंमन दुलार.. ढेरमढेर प्यार
निस्स्वार्थ, निश्छल, निर्दोष, निरहंकार .. .

 

सौरभ भईया आप ने इस रचना को नहीं रचा है यह मैं अच्छी तरह से समझ गया हूँ , यह कृति तो स्वतः अपना अस्तित्व बना ली है, आप तो काल दर काल डूबते चले गए है और उस डूबने के क्रम में जो यादें ख़ामोशी से मन मस्तिक पर दस्तकें दी है उन्ही को आप कैनवास पर उतारते चले गए, बिलकुल प्राकृतिक रूप से, न कोई बनावट, न ही सजावट  ! मैं सही हूँ ना ? अवश्य कहियेगा भईया, बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें |

गणेशभाईजी, आपकी जागृति, संवेदना और भावुक मन को मेरा शत्-शत् अभिनन्दन !

आपने एकदम से सही कहा है, मैं ने प्रस्तुत कविता की रचना नहीं की है, बल्कि यह संसृत होती चली गयी है. नयन-कोर भीगते रहे, लोर हो विभोर अनायास ढलते रहे. मैं व्यतीत क्षणों की स्मृतियों में बहता गया. स्मृति-चित्रों को शब्दों की परिधि देता गया और जो कुछ हो पाया वो सामने है.  आपको रचना पसंद आयी इस हेतु आभार.

अभी तक साहित्य-संसार में रचनाओं के भावों, कथ्य, शिल्प और विस्तार आदि पर ही चर्चा और समीक्षा का ढंग रहा है. काव्य-प्रसव, रचना-प्रसव पीड़ा और रचना-प्रसूति-मनोदशा पर कभी-कभार चर्चा हुई हो तो हो, अन्यथा इसकी परिपाटी वस्तुतः नहीं है. 

इस प्रक्रिया की ओर इंगित करने के लिये आपका बहुत-बहुत धन्यवाद.

 

बाग़ी जी  मैं पूर्णतय: सहमत हूँ आपकी बात से, इस रचना में शब्दों से कहीं कोई मसनूई खिलवाड़ नहीं की गई है ! कविता झर झर झर बहती जाती  रही है, साथ ही पढने वाला भी ! 

हुज़ूर..


बहुत उम्दा परिचर्चा...

एक-एक दिन ,एक-एक रिश्ता,सांझ -सवेरे ,मामा नाना ...कितनी मनोरम रचना ? इस पल झगडे उस पल मेल ,जिंदगी के सूखे कुओं से सिर्फ सुना  जाता है ...  .....बहुत खूब  सर  जी . |आप जैसे  सधे  हुए वरिष्ठ कवियों के लिए कुछ कहना सूरज को दीपक दिखाना है |  आपको मेरी शुभकामनाएं  | 

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