परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 174 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा 'जॉन एलिया' साहिब की ग़ज़ल से लिया गया है |
"रूठते अब भी हैं मुरव्वत में''
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन
2122 1212 22/112
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस सालिम मख़बून महज़ूफ
रदीफ़ --में
काफिया:- (अत का)
महब्बत, अदावत,इमारत,वहशत,आदत,इनायत आदि ।
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 27 दिसंबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 28 दिसंबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
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मंच संचालक
जनाब समर कबीर
(वरिष्ठ सदस्य)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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सबका स्वागत है ।
आदरणीय उस्ताद-ए-मुहतरम साहिब को सादर चरणस्पर्श
सादर अभिवादन आदरणीय।
सादर अभिवादन आदरणीय कबीर सर जी
नमन मंच
आदाब 'अर्ज़ है महफ़िल।
जिसको देखो वही अदावत में
कौन खुश है भला सियासत में।१।
*
घिस गयी जूतियाँ थमीं साँसें
केस जिसका गया अदालत में।२।
*
बच गये हम सभी चतुर थे जो
लुट गया वो भला शराफत में।३।
*
धन बढ़ा या गुरूर कुर्सी का
फर्क आया है जो नज़ाकत में।४।
*
दोष सबका, नहीं अकेले का
ये जो नफरत बढ़ी है भारत में।५।
*
खोदकर नींव खुश हुए देखो
रह रहे लोग जो इमारत में।६।
*
फूँक निज घर हमें उजाला दे
राज गहरा है इस इनायत में।७।
*
पूछ लेना पता 'मुसाफिर' से
याद आऊँ अगर मुसीबत में।८।
गिरह-
ढल गयी उम्र किन्तु हम यारो
"रूठते अब भी हैं मुरव्वत में''
*
मौलिक/अप्रकाशित
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ, कई अच्छे अश'आर हुए हैं...जिनमें आपने अपनी आंतरिक पीड़ा के दर्शन के साथ वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के परिदृश्य में अपनी चिंता का इज़हार किया है।
"जिसको देखो वही अदावत में" को "जिसको देखो है वो 'अदावत में" कहना बहतर होगा।
आदरणीय लक्ष्मण जी, अच्छी ग़ज़ल हुई। बधाई स्वीकार करें।
३ सुझाव... "लुट गया जो रहा शराफ़त में"
४ सुझाव... "हुस्न में हो गया इज़ाफ़ा क्या"
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब
ग़ज़ल के अच्छे प्रयास पर बधाई स्वीकार करें।
आप नुक़्ते छोड़ देते हैं जिनसे शब्दों का अर्थ बदल जाता है।
जैसे राज़ मतलब Secret, राज मतलब हुकूमत
जिसको देखो वही अदावत में
कौन खुश है भला सियासत में।१।
"जिसको देखो है वो 'अदावत में"
अमीरुद्दीन जी का सुझाव अच्छा है
*
घिस गयी जूतियाँ थमीं साँसें/ गया पैसा
केस जिसका गया अदालत में।२।
*
बच गये हम सभी चतुर थे जो
लुट गया वो भला शराफ़त में।३।
"लुट गया जो रहा शराफ़त में"
संजय शुक्ला जी का सुझाव अच्छा है
*
धन बढ़ा या गुरूर कुर्सी का
फर्क आया है जो नज़ाकत में।४।
नज़ाकत की जगह कोई दूसरा क़ाफ़िया सोचें
या संजय शुक्ला जी द्वारा सुझाया
गया उला इस्ते'माल करें
*
दोष सबका, नहीं अकेले का
ये जो नफ़रत बढ़ी है भारत में।५।
*
फूँक निज घर हमें उजाला दे
राज़ गहरा है इस इनायत में।७।
*
पूछ लेना पता 'मुसाफ़िर' से
याद आऊँ अगर मुसीबत में।८।
// शुभकामनाएँ //
2122 1212 22
जान फँसती है जब भी आफ़त में
बढ़ती हिम्मत है ऐसी हालत में 1
और किसका सहारा होता है
याद आए ख़ुदा मुसीबत में 2
हादसों को बुलावा देते हो
क्या रखा है बताओ उजलत में 3
सर्द मेहरी से काँपने वालो
कुछ हरारत तो हो तबीयत में 4
सारे मंज़र गुलाब लगते हैं
है गुलाबी नशा मुहब्बत में 5
दोस्त कहता है ख़ुद को तू मेरा
काम आता नहीं ज़रूरत में 6
अब सुकूँ चाहता नहीं कोई
लुत्फ़ आने लगा जो हुज्जत में 7
हो न हो है गुनाहों की ये सज़ा
काँटे चुभने लगे हैं बिस्तर में 8
कार-गाह-ए-जहाँ से छूट "रिया"
हमको रहना है तेरी क़ुर्बत में 9
गिरह
कुछ शिक़ायत नहीं हमें तुझसे
"रूठते अब भी हैं मुरव्वत में''
"मौलिक व अप्रकाशित"
मुहतरमा ऋचा यादव जी ग़ज़ल के अच्छे प्रयास के लिए आपको मुबारकबाद।
"काँटे चुभने लगे हैं बिस्तर में" 8... क़ाफ़िया नहीं हुआ।
बाक़ी अशआर मेरे तईं तकनीकी तौर पर दुरुस्त हैं।
आदरणीय Richa Yadav जी आदाब
ग़ज़ल के अच्छे प्रयास पर बधाई स्वीकार करें
2122 1212 22
जान फँसती है जब भी आफ़त में
बढ़ती हिम्मत है ऐसी हालत में 1
सर झुकाते हैं सब इबादत में
सर्द मिहरी से काँपने वालो
कुछ हरारत तो हो तबीयत में 4
सहीह शब्द है तबी'अत
सारे मंज़र गुलाब लगते हैं
है गुलाबी नशा मुहब्बत में 5
मंज़र गुलाब नहीं गुलाबी लगते हैं
सहीह शब्द है 'महब्बत ' ये कई बार
आपको बताया है और डिक्शनरी स्क्रीनशॉट
भी शेयर किया है । अगली बार अगर आपने
मोहब्बत या मुहब्बत लिखा तो मैं आपकी
पोस्ट पर टिप्पणी नहीं करूँगा।
दोस्त कहता है ख़ुद कोजो मेरा
काम आता नहीं ज़रूरत में 6
हो न हो है गुनाहों की ये सज़ा
काँटे चुभने लगे हैं बिस्तर में 8
बिस्तर 'अर' का क़ाफ़िया हो गया देखें
// शुभकामनाएँ //
आवश्यक सूचना:-
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