For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

तम से लड़ी है जिंदगी

2122  2122  2122  212

मौत है निष्ठूर निर्मम तो कड़ी है जिंदगी

जो ख़ुशी ही बाँटती हो तो भली है जिंदगी

 

लोग जीने के लिए हर रोज मरते जा रहे

ये सही है तो कहो क्या फिर यही है जिंदगी

 

दो निवालों के लिए दिनभर तपाया है बदन

या कि मानव व्यर्थ चाहत में तपी है जिंदगी  

 

झूठ माया मोह रिश्ते सब सही लगते यहाँ

जाने कैसे चक्रव्यूहों में फँसी है जिंदगी

 

काठ का पलना कहीं तो खुद कहीं पर काठ है

है हँसी कोमल कहीं आँसू भरी है जिंदगी

 

चाँद भी रातों को रोशन कर चुका है तो कहो

किन उजालों के लिए तम से लड़ी है जिंदगी

 

आसमां के पार भी इक आसमां तैयार है

ख्वाब बुन लो तो चलो कहती रही है जिंदगी.

 

मौलिक/अप्रकाशित.

Views: 838

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 12, 2016 at 7:53pm

आदरणीय अजय कुमार शर्मा साहब आपको गजल पसंद आयी जानकर मुझे प्रसन्नता हुई. सादर आभार.

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 12, 2016 at 7:52pm

आदरनीय गिरिराज भंडारी साहब सादर, आपको गजल के अशआर अच्छे लगे मेरा रचना श्रम सार्थक हुआ. हार्दिक आभार. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 12, 2016 at 7:51pm

आदरणीय श्री सुनील जी सादर, प्रस्तुत गजल पर उत्साहवर्धन के लिए आत्मीय आभार. सादर.

Comment by Ajay Kumar Sharma on July 12, 2016 at 11:35am
Raktale Saab vakai behtareen ghajal . badhai ho

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 12, 2016 at 9:55am

आदरनीय अशुक भाई , ज़िन्दगी की सच्छाइयाँ बयान करती आपकी गज़ल बहुत अच्छी लगी , दिल से बधाइयाँ आपको हरेक शे र के लिये ।

Comment by shree suneel on July 11, 2016 at 9:27pm
आसमां के पार भी इक आसमां तैयार है
ख्वाब बुन लो तो चलो कहती रही है जिंदगी... बहुत बढि़या..
अच्छे-अच्छे शे'र कहे हैं आदरणीय अशोक सर जी. हार्दिक बधाई आपको. सादर.
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 11, 2016 at 1:34pm

आदरणीय रामबली गुप्ता साहब सादर, प्रस्तुत गजल पर उतासाह्वर्धन के लिए आपका दिल से आभार. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 11, 2016 at 1:32pm

 आदरणीय महेंद्र कुमार साहब. बिलकुल स्पष्ट हुआ. हार्दिक आभार आपका इस बारीकी से परिचित करवाने के लिए. सादर.

Comment by Mahendra Kumar on July 11, 2016 at 10:02am
आदरणीय अशोक सर, सुझाव का मान रखने के लिए हार्दिक आभार!

//लोग जीने के लिए हर रोज मरते जा रहे, ये सही है तो कहो क्या अब यही है जिंदगी// इस शेर के सानी में 'अब' के प्रयोग से यह निकल कर आ रहा है कि उला में जिस बात का ज़िक्र किया जा रहा है वह पहले नहीं होती रही होगी लेकिन अब हो रही है। जब हम उला को देखते हैं तो उसमें मनुष्यों को जीने के लिए मरने की बात सामने आ रही है अर्थात् सर्वाइवल की। अब सानी के अनुसार (अब के प्रयोग के कारण) यह चीज पहले नहीं होनी चाहिए किन्तु मानव के इतिहास को देखें तो हमें शुरू से ही जीने की जद्दोजहद दिखाई देती है। इसलिए अब का प्रयोग मेरे हिसाब से उचित नहीं है। दूसरी बात, यदि किसी तरह इसका सम्बन्ध इसके पहले वाले शेर से होता अर्थात् मतले में कोई व्यक्ति यह कह रहा होता कि ज़िन्दगी खुशनुमा और हसीन है तो अगले शेर में उसकी बात का जवाब देते हुए 'अब' का प्रयोग किया जा सकता था किन्तु मुझे नहीं लगता कि मतले में ऐसी कोई बात कही जा रही है। इसलिए मैंने आपको उस मिसरे में संशोधन का सुझाव दिया था। सादर!
Comment by रामबली गुप्ता on July 11, 2016 at 8:18am
आद0 अशोक जी
आपकी गज़ल अपने आप में एक बेहतरीन और हृदयस्पर्शी प्रस्तुति है। सारे कथ्य उत्तम और संदेशप्रद विचारों को समाहित किये हुए हैं। हृदय से बधाई स्वीकार करें।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

आदमी क्या आदमी को जानता है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२२ कर तरक्की जो सभा में बोलता है बाँध पाँवो को वही छिप रोकता है।। * देवता जिस को…See More
21 hours ago
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
yesterday
Sushil Sarna posted blog posts
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Nov 5
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Nov 5

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Nov 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Oct 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Oct 31
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Oct 31
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Oct 31

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service