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छाये नभपर घन मगर, सहमी है बरसात |

देख धरा का नग्न तन, उसे लगा आघात ||

उसे लगा आघात, वृक्ष जब कम-कम पाए,

विहगों के वह झूंड, नीड जब नजर न आए,

अब क्या कहे ‘अशोक’, मनुज फिरभी इतराए,

झूठी लेकर आस, देख घन नभ पर छाए ||

 

 

कहीं उडी है धूल तो, कहीं उठा तूफ़ान |

देख रहा है या कहीं, सोया है भगवान ||

सोया है भगवान, अगर तो मानव जागे,

हुई कहाँ है भूल , जोड़कर देखे तागे,

जीवन की यह राह, गलत तो नहीं मुड़ी है

देखे क्यों तूफ़ान, धूल क्यों कहीं उडी है ||

 

मौलिक/अप्रकाशित.

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Comment

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Comment by shree suneel on July 11, 2016 at 8:51pm
आदरणीय अशोक रक्ताले सर जी, मानव को आगाह करती सुन्दर सार्थक प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई. सादर
Comment by रामबली गुप्ता on July 7, 2016 at 10:56am
आद0 अशोक कुमार जी बहुत ही सुंदर कुण्डलिया हुई हैं हृदय से बधाई स्वीकार करें।सादर

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