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२२१  २१२१ १२२१ २१२

 

ये रूप रंग गंध सभी  शान बन गए

कुछ रोज में ही जो मेरी पहचान बन गए

 

नफरत के सिलसिले जो चले धूप छाँव बन

इंसानियत के शब्द भी मेहमान बन गए

 

तुम-तुम न रह सके न ही मैं-मैं ही बन सका

दोनों ही आज देख लो शैतान बन गए

 

खेमों में बँट गए हैं सभी आज इस तरह

कुछ राम बन गए कई रहमान बन गए

 

हद के सवाल पर या कि जिद के सवाल पर

हद भूलकर गिरे सभी नादान बन गए.

 

 

मौलिक/अप्रकाशित.

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Comment by गिरिराज भंडारी on July 19, 2016 at 5:59pm

आदरणीय अशोक भाई , बेहतरीन गज़ल कही आपके , दाद के साथ मुबारकबाद कुबूल करें ।

नफरत के सिलसिले जो चले धूप छाँव बन

इंसानियत के शब्द भी मेहमान बन गए   -- बहुत खूब !

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 18, 2016 at 7:04pm

आदरणीय रवि शुक्ला जी सादर, आपको प्रयास अच्छा लगा इसके लिए दिल से आभार. आदरणीय जब इतने उस्ताद शायर मंच पर हों तो अवसर का लाभ लेने में ही भलाई है. यही सोचकर कलम को थोड़ा इधर मोड़ लिया है. सादर.

Comment by Ravi Shukla on July 18, 2016 at 10:39am

आदरणीय आशोक रक्‍ताले जी छंद से इतर आपको गजल कहते भी देख रहे है अच्‍छे अशआर कहे है आपने सुखद है ये प्रयास  आपको बहुत बहुत बधाई इसके लिये । 

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 18, 2016 at 8:01am

उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय मनन कुमार सिंह जी. सादर.

Comment by Manan Kumar singh on July 17, 2016 at 7:16pm
अच्छी अभिव्यक्ति है आ. अशोक जी,बधाई आपको।

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