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प्रकृति में सुकून---डॉ o विजय शंकर

प्रकृति प्रेमी है वह ,
प्रकृति से असीम प्रेम करता है,
पहाड़ों पर, समुद्र-तटों पर, जंगलों में, रेगिस्तान में ,
कहाँ नहीं जाता है वह , कई कई दिन ,
कई कई रातें बिताता है ,
प्रकृति की गोद में ही सुख पाता है ,
वहीं खो जाता है वह ।
बस प्रकृति की सर्वोत्त्तम कृति से डरता ,
बहुत घबड़ाता है ,
उनसे कुछ दूर ही रहता है वह ,
सर्वोत्तम कृति की प्रकृति , समझ ही नहीं पाता है वह ,
उनकी उष्णता , उदासीनता , विद्वता , कुछ समझ नहीं पाता ,
उनके बीच तो जैसे खुद को भी खो देता है वह,
भटका, उदास पाता है वह, दुखी हो जाता है वह।
जल्दी ही दूर कहीं प्रकृति की सूनी गोद में लौट जाता है वह,
वहीं सुकून पाता है वह ,
वहीं सुकून पाता है वह ॥


मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 773

Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on February 12, 2015 at 11:54am
प्रिय जीतेन्द्र जी , रचना आपको पसंद आई, आपका आभार, आपकी बधाइयों के लिए सादर धन्यवाद।
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 12, 2015 at 10:59am

बहुत सुंदर कोमल भाव. पृकृति प्रेम बड़ा सुकूनदायक ही होता है. बहुत-बहुत बधाई आपको आदरणीय डा.विजय जी

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 12, 2015 at 4:46am
आदरणीय खुर्शीद खैरादी जी, रचना आपको पसंद आई , अच्छा लगा, आभार , आपकी सद्भावनाओं के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद, सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 12, 2015 at 4:42am
आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी, आपका मन अमल धवल है , आपकी बात सहर्ष स्वीकार है, कोई संशय न रखें , आपका सदैव ही स्वागत है।
इस रचना में मैं केवल यह बात लाना चाहता था कि -
बस प्रकृति की सर्वोत्त्तम कृति से डरता ,
बहुत घबड़ाता है ,
उनसे कुछ दूर ही रहता है वह ,
सर्वोत्तम कृति की प्रकृति , समझ ही नहीं पाता है वह ,
इसके अतिरिक्त अधिक कुछ नहीं।
आपकी रचना बहुत ही सुन्दर है, हिमगिरि का बहुत सुन्दर चित्रण है , मुझे नैनीताल और चमोली के अपने दीर्घ आवास याद आ गये।
नागपुर के निकट एक छोटी सी पहाड़ी पर एक स्थान है , रामटेक, एक मध्य युगीन मंदिर है वहां पर, उस स्थान पर प्रायः बादल बहुत रहते हैं , उन्हें देख कर लगता है कि ये बादल दूर से आते हैं , दूर तक जाते हैं , दूत से लगते हैं, ऐसा लगता कि कालिदास ने मेघदूत की रचना वहीँ होगी। इस बात को उल्लिखित करते हुए वहां एक स्मारक भी , इसी आशय से , बनाया गया है. आपकी कविता ने बरसों पुराने देखे उस दृश्य को भी सजीव कर दिया। बहुत सुन्दर.
बधाई , बहुत बहुत , सादर।
Comment by khursheed khairadi on February 12, 2015 at 12:34am

जल्दी ही दूर कहीं प्रकृति की सूनी गोद में लौट जाता है वह,
वहीं सुकून पाता है वह ,
वहीं सुकून पाता है वह ॥

आदरणीय विजय शंकर सर ,सुन्दर प्रस्तुति है ,वास्तव में प्रकति की गोद में ही सकून मिलता है |सादर अभिनन्दन |

Comment by Hari Prakash Dubey on February 11, 2015 at 11:44pm

गुरुदेव , हम लोग आपसे सीख रहें हैं ......इससे ज्यादा  क्या कहूं सर , बस कभी कुछ गलत कह दूं , तो क्षमा ! सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 11, 2015 at 11:10pm
कुछ और बेहतर
आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी, आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है, कुछ और बेहतर हो सकता है, infact ,the concept of best is [ always ] yet to come , सदैव अच्छा होता है. अभी दो घंटे पूर्व जब मैं इसे लिख रहा था तो मुझे भी यही विचार आया कि यह भी जोड़ दूँ इसमें कि उसे क्यों सर्वोत्तम कृति से दूर अच्छा लगता है, क्यों वह दुनियाँ से दूर रहता है, क्यों आदमी आदमी से दूर रहा है, पर फिर लगा बहुत बड़ी रचना हो जाएगी , लोग पढेंगें कि टाल जायेंगें, बस यही लोभ था।
२. आपने इतनी रूचि ली , बहुत अच्छा लगा। आपने रचना के अंतर्भाव को और विकसित करके देखा और तब यह दो शब्दों की बहुत बड़ी टिप्पणी की , बहुत बहुत आभार आपका ,
३. सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 11, 2015 at 10:56pm
प्रिय मिथिलेश जी, आपका स्वागत है, रचना पर आपकी प्रतक्रिया का स्वागत है, आभार , बधाई हेतु बहुत बहुत धन्यवाद, सादर।
Comment by Hari Prakash Dubey on February 11, 2015 at 10:12pm

सर,

कुछ और बेहतर....? 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 11, 2015 at 10:03pm

प्रकृति के महत्त्व को दर्शाती बेहतरीन कविता ... आदरणीय डॉ विजय शंकर सर बहुत बहुत बधाई 

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