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बहुत से लोग बेेेघरर  हो  गए  हैं ।
सुना   हालात  बदतर  हो  गए  हैं ।।

मुहब्बत उग नहीं सकती यहां पर ।
हमारे   खेत  बंजर   हो  गए   हैं ।।

पता हनुमान  की  है  जात जिनको।
सियासत  के  सिकन्दर हो गए हैं ।।

यहां  हर  शख्स   दंगाई   है  यारो ।
सभी के  पास  ख़ंजर  हो  गए  हैं ।।

सलीका ही नहीं चलने का जिनको ।
वही  भारत के  रहबर  हो गए  हैं ।।

लुटेरे  मुल्क़   में  बेख़ौफ़  हैं   अब ।
बदन पर सब के खद्दर  हो  गए हैं ।।

मेरा धन लूटकर देते जो तुमको ।
वही  हाकिम  मुकर्रर  हो   गए  हैं ।।

करप्शन   की  सुनामी  देखिए  तो ।
नदी   नाले   समंदर   हो   गए  हैं ।।

कलम  यूँ  ही उगलती आग कब है ।
मुझे  भी  गम  मयस्सर  हो  गए हैं ।।

अदालत में  तो उसकी  हार तय है ।
तुम्हारे  साथ अफ़सर  हो  गए  हैं ।।

       डॉ0 नवीन मणि त्रिपाठी
      मौलिक अप्रकाशित






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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 3, 2019 at 2:46pm

बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय त्रिपाठी जी..सादर

Comment by राज़ नवादवी on December 30, 2018 at 6:18pm

आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे दिली मुबारकबाद. सादर. 

Comment by Naveen Mani Tripathi on December 30, 2018 at 12:16am

आ0 गुरुदेव समर कबीर सर ग़ज़ल तक आने के लिए तहे दिल से शुक्रियः । सादर नमन ।

Comment by Samar kabeer on December 29, 2018 at 10:58pm

अब ठीक है ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on December 29, 2018 at 10:55pm

आ0 कबीर सर सादर नमन । बिल्कुल सही कहा आपने जल्दबाजी में गलती हो गयी है ठीक करता हूँ 

बहुत से लोग बेघर हो गए हैं ।

सुना हालात बदतर हो गए है।।

दूसरा 

मेरा धन लूटकर देते जो तुमको।

वही हाकिम मुकर्रर हो गए हैं ।।

Comment by Samar kabeer on December 29, 2018 at 10:01pm

जनाब डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

मतले के दोनों मिसरों में "तर" की क़ैद हो गई है,कोई एक मिसरे का क़ाफ़िया बदलें ।

सलीका ही नहीं चलने का जिसको

इस मिसरे में 'जिसको' शब्द को "जिनको" कर लें ।

' जो  हमको  चूस कर देते हैं तुमको ।
वही  हाकिम  मुकर्रर  हो   गए  हैं'

इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं है,क्या चूस कर किसको देते हैं?

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