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आशंका के गहरे-गहरे तल में

आशंका के गहरे-गहरे तल में

आयु के हज़ारों लाखों पलों के दबे ढेर में

नए कुछ पुराने दर्दों की कानों में आहट

भार वह भीतर का जो खलता था तुमको

मुझको भी

एक दूसरे को दुखी न देखने की

दर्द और न देने की मूक अभिलाषा

रोकती रही थी तुमको... कुछ कहने से

मुझको भी

पर परस्पर दर्द और न देने की इस चाह ने

बना दी है अब बीच हमारे कोई खाई गहरी

काल ने मानो सुनसान रात की गर्दन दबोच                                                     

गले पर मानो लटका दी है कोई गठरी भारी

इस सूने में बढ़ जाता है जब दर्द ज्वालामुखी-सा

सोचता हूँ अच्छा ही होता जो कोई संबंध न होता

अंधियारी रातों का उदास खड़े पेड़ों से

या... तुम्हारा मुझसे

यह चुप्पी की खाई बीच हमारे

शब्द असमर्थ हैं, लांघ नहीं पा रहे

दर्द जो तुम मुझको देने से डरती रही

घने मेघों-से वही हैं अब बढ़ते आ रहे

भार वह भीतर आशंका का बढ़ता है उबलता है

कभी सोच कभी अफ़सोस कभी फ़िक्र तुम्हारी

मैं क्या करूँ क्या न करूँ कि करने न करने से

पड़ जाए झोल कहीं हिमीभूत भविष्य में तुम्हारे

मेरी "प्यार", अच्छा है कि अब हम न ही मिलें

                       ----------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sushil Sarna on August 28, 2018 at 12:13pm

वाह आदरणीय विजय निकोर साहिब , मन की गहराईयों से वेदना के अनकहे ऐसे भावों को आपने चित्रित किया है कि जिन्हें शब्दों का जामा पहनाना सम्भव नहीं। आपकी शैली खामोशी को आवाज़ दे देती है , अंतर्मन के व्यथा सबा की तरह महसूस होती है ,जहां थमती है आपकी कलम वहीं उन्स का जज़ीरा होता है । इस भाव प्रपात को सलाम। आपकी इस अनुपम कृति को दिल से सलाम।

Comment by नाथ सोनांचली on August 27, 2018 at 6:26pm

आद0 नरेंद्र सिंह चौहान जी सादर अभिवादन। आशा है कि आप आद0 समर साहब की बातों को संजीदगी से लीजियेगा। क्योकि इस तरह की चलताऊ टिप्पणी से ओ बी ओ की सीखने सिखाने पुरानी परंपरा टूटती तो है ही, साथ ही यह उचित वही नहीं है।

Comment by नाथ सोनांचली on August 27, 2018 at 6:22pm

आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। बढ़िया विचारोत्तेजक भाव पूर्ण रचना पर हार्दिक बधाई निवेदित है।

Comment by Samar kabeer on August 27, 2018 at 5:52pm

जनाब नरेंद्र सिंह चौहान जी आदाब,

देख रहा हूँ कि आजकल ओबीओ पर सोशल मीडिया की तरह टिप्पणीयाँ दी जा रही हैं,न उनमें रचनाकार को संबोधित किया जाता है,न जिस विधा में रचना होती है उसका हवाला होता है, ये ओबीओ की परिपाटी नहीं है,आप  ओबीओ  के पुराने सदस्य हैं,आपसे निवेदन करता हूँ कि कृपा कर ओबीओ मंच की गरिमा का मान रखें,और हर सदस्य का ये कर्तव्य है कि जहाँ भी ऐसी टिप्पणी नज़र आये वहाँ टोकें ज़रूर, निवेदन है कि मेरी बात की गम्भीरता को समझेंगे और इसे अन्यथा न लेंगे ।

Comment by narendrasinh chauhan on August 27, 2018 at 5:03pm

खूब सुन्दर भाव पूर्ण रचना 

Comment by Samar kabeer on August 27, 2018 at 4:45pm

प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,कितनी गम्भीर

और प्रभावशाली रचना हुई है,हर शब्द जैसे मोती की तरह पिरो दिया गया हो,वाह बहुत ख़ूब, इस शानदार सृजन के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें ।

आपको रक्षा बंधन की बधाई भी ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 27, 2018 at 10:11am

आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन ।बेहतरीन भावपूर्ण रचना हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by नाथ सोनांचली on August 26, 2018 at 1:32pm

आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। बढिया भाव सम्प्रेषण कविता के माध्यम से। कोटि कोटि बधाई सम्प्रेषित है।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 26, 2018 at 12:53pm

बेहतरीन विचारोत्तेजक सृजन। हार्दिक बधाई। पावन.रक्षाबंधन पर्व की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं आदरणीय विजय निकोरे साहिब।

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