ये हवा कैसी चली है आजकल
सब यहाँ दिखते दुखी हैं आजकल
दुख किसीको है अकेला क्यों खड़ा
और किसीको भीड का ग़म आजकल
है शिकायत नौजवाँ को बाप से
बाप को लगता वो बिगड़ा आजकल
मायने हर चीज के बदले यहाँ
है नहीं अच्छा बुरा कुछ आजकल
बाँटकर खाने के दिन वो लद गये
लूटलो जितना सको बस आजकल
मुल्क के ख़ातिर गँवाते जान थे
क़त्ल करते मुल्कमें ही आजकल
क़ौल के ख़ातिर गँवायें जान क्यों
कौन है वादे निभाता आजकल
ताज भी छोड़ा किसीने शान में
कौन छोड़ेगा ये कुर्सी आजकल
सिर्फ़ मसला ये नहीं लिबास का
देखना बाक़ी रहा क्या आजकल
तुम भले चाहे गँवादो जान भी
बस यही होता रहेगा आजकल
मौलिक एवं अप्रकाशित।
Comment
आदरणीय समर कबीरजी
आपकी सुचनाओं का ध्यान रक्खूंगा ।
OBO पर इतने सौहार्द पूर्ण वातावरणमें उचित मार्गदर्शन मेरे अहोभाग्य का विषय है !
गुणी जनों का सहयोग मिलता रहा तो कुछ न कुछ सीख ही जाऊँगा ।
आभार !
आदरणीय रविकान्त जी ,
आपके मार्गदर्शन का बहुत बहुत आभार ।आगके लिये ये सुचनायें काफ़ी सहायक होगी ।
आदरणीय किशाेरकांत जी आे बी आे पर गजल की बातें एवं गजलकी कक्षा से मूल भूत जानकारी लेकर आगे बढे बहर अौर काफिया गजल का मूल भूत तत्व है इसके बिना गजल नहीं हो सकती । अब मेरे द्वारा उठाए गये दो शब्द खािलाफत को विरोघ के अर्थ में नहीं प्रयुक्त कियाजाना चाहिये उसके लिए मुखालिफ लफ्ज है आेर मसला की जगह मसअला 212 के वजन में लियाजाएगा । सादर
जनाब किशोर कांत जी आदाब, अव्वल तो ये ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल नहीं है,दूसरी बात ये कि ये ग़ज़ल भी नहीं है,क्योंकि बिना रदीफ़ की ग़ज़ल हो सकती है,लेकिन बिना क़वाफ़ी की ग़ज़ल नहीं होती,और आपकी इस प्रस्तुति में रदीफ़ तो है, क़वाफ़ी नहीं है,अगर ग़ज़ल विधा पर क़लम चलाना है तो उसके लिए बहुत अध्यन करना होगा,ओबीओ पर इस विधा पर बहुत से आलेख हैं,उन का लाभ लें ।
तस्दिक अहमद खाए साहब
हौसला अफ़्जाई का तहें दिलसे शुक्रिया । सीखने सीखाने के सिलसिलेमें आपका सहयोग अवश्य दें ।
आदरणीय रवि शुक्लाजी,
'फ'के ऊपर रेफ के कारण मैंने सि को गुरु (२) किया है सिर्फ़ = सिर फ
ख़िलाफ़त में ......के स्थान पर ........भले चाहे .....कर दिया है ?
आपका आभार एवं सहायता की प्रार्थना ।
आदरणीय नविनमणी त्रिपाठी जी,
आपका मार्गदर्शन मूल्यवान है ।
मतलेमें है और हैं (.) का भेद है ।
काफिया निभाते नहीं बन पड़ा था इसलिये आजकल को क़ाफ़िया बनाकर ग़ैर मुर्रदफ कहा ।क़ाफ़िये की खोजमें रचना का प्रस्तुत रूप ही बदल जायेगा।
ईसी कहन को स्विकार्य रूप कैसे दे सकते हैं, कृपया मार्गदर्शन करें ।
अभी विद्यार्थी ही हूँ ।
आदरणीय रवि शुक्लाजी भी अनुग्रह करें । ख़िलाफ़त एवं मसला में सुधार कर दूँगा ।
आदरणीय किशोर कांत जी प्रयास अच्छा हुआ है मतले मे काफिया आैर रदीफ दोनो ही है आैर पूरी गजल में आजकल रदीफ चल रहाहै इसलिए गैर मुरद्दफ नहीं हुई है गजल साथाही आपने अरकान भी नहीं लिखे है । लफ्ज खिलाफत अर्थ में आैर मसला वज्न के अनुसार फिर से देख लें ।सादर
जनाब किशोर कान्त साहब बहुत सुंदर प्रयास है ग़ज़ल का ।ग़ज़ल गैर मुदर्र्फ कैसे हुई रदीफ़ तो आजकल है ।
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