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मुहब्बत में हमीं मुजरिम हैं हम ये मान लेते हैं
चलो अब तुम कहो तुमसे तुम्हारी जान लेते हैं

ज़रा हम भी तो देखें धार उन क़ातिल निगाहों की
सुना है वो इसी ख़ंजर से सबकी जान लेते हैं

जो फिर देखो उन्हें तो वो जुदा लगते हैं पहले से
कहें कैसे कि हम उनको सही पहचान लेते हैं

कभी गुस्सा कभी आँसू कभी फिर रूठना उनका
वो कितने इम्तिहाँ मुझसे मेरे भगवान लेते हैं

तो फिर दुनिया क्या इस दुनिया का रखवाला भी झुकता है
मुहब्बत करने वाले भी अगर ज़िद ठान लेते हैं

जो दिल देते हो तुम हमको तो फिर ये जान हाज़िर है
भला यूँ ही किसी का हम कहाँ अहसान लेते हैं

फ़क़त इक पल की ख़ातिर उनकी आँखों से लड़ीं आँखें
बस इतनी बात पर अब वो मेरा ईमान लेते हैं


मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Alok Rawat on July 11, 2018 at 11:42am

आदरणीय दादा गोपालजी, सादर प्रणाम , आप ठीक कहते हैं | आप सदैव मेरे शुभचिंतक रहे हैं | ओ बी ओ में ये मेरी दूसरी ग़ज़ल है | पहली ग़ज़ल में मुझे आदरणीय समर कबीर साहब का और अन्य लोगों का उचित मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था | मेरी दृष्टि में सीखने के लिए इस मंच से बेहतर दूसरा और कोई मंच नहीं है | बड़े प्यार,स्नेह और विनम्रता के साथ इस्लाह दी जाती है | मैं अपनी सक्रियता बनाये रखूंगा | कोशिश करूँगा की और बेहतर कह सकूं |

Comment by Alok Rawat on July 11, 2018 at 11:35am

आदरणीया नीलम जी आपका बहुत बहुत आभार

Comment by Alok Rawat on July 11, 2018 at 11:34am

आदरणीय गुरप्रीत सिंह जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया, इस्लाह के लिए | आप जैसे गुणीजनों के सान्निध्य में निश्चय ही कुछ सीख सकूंगा | मतले में सिर्फ मुहब्बत में ईमानदारी की बात की है कि मैं अपनी ग़लती स्वीकार करता हूँ लेकिन तुम्हारा अपने बारे में क्या ख्याल है, बस इतनी सी बात है | बाक़ी "रूठने" की जगह "नाराज़गी " की सलाह सर आँखों पर | मैंने अपने हिसाब से "रूठना " का इस्तेमाल किया | ग़ज़ल की बहर "मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन" है | आगे से ध्यान रखूँगा |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 10, 2018 at 6:58pm

प्रिय अलोक 

मंच पर आपकी गजल देखकर बड़ा सुकून हुआ . यहाँ  बहुत  कुछ सीखने को मिलता है . अपनी कमियां  खुद को अक्सर नजर नही आती पर यह मंच आपको अवश्य टोकेगा  जैसे मतले के बारे में कहा  गया कि शायद दोनों पंक्तियों में राब्ते की कमी  है . जो लोग स्वय को सिद्ध मान  बैठे हैं,  मैं उनकी बात नही करता पर आप में सीखने की ललक भी  है और वह  विनम्रता भी है जो साहित्यकार में होनी चाहिए . इसलिय आप मंच से लगातार जुड़े रहें  यह मेरी इच्छा है . आप मेरे अनुज है मुझे तो आपकी सारी  ही रचनायें अच्छी लगती है और गजल तो मैं भी सीख  ही रहा हूँ . अभी  आ० समर कबीर साहिब की निगाह नही पड़ी  वह  बहुत अच्छा मार्गदर्शन करते है . यह गजल  मैं आपके मुख से  सस्वर  सुन चुका हूँ . मंच के सदस्य आपके स्वर के जादू से अभी परिचित नही है ,वरना  वे आपके कायल अवश्य हो जाते . स्नेह . 

Comment by Neelam Upadhyaya on July 10, 2018 at 4:04pm

आदरणीय अलोक रावत जी, नमस्कार । बहुत बढ़िया ग़ज़ल की पेशकश।  दिल से मुबारकबाद।

Comment by Gurpreet Singh jammu on July 10, 2018 at 3:59pm

आदरणीय आलोक रावत जी , नमस्कार , बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने ,इसके लिए बहुत बहुत बधाई आपको। ये शेर तो बेहद पसंद आया
ज़रा हम भी तो देखें धार उन क़ातिल निगाहों की
सुना है वो इसी ख़ंजर से सबकी जान लेते हैं

मंच के नियमों के मुताबिक ग़ज़ल की बह्र लिखना भी ज़रुरी है। ग़ज़ल पढ़ते हुए जो एक दो बातें मन में आईं, वो साझा कर रहा हूँ जी ,


--"कभी गुस्सा कभी आँसू कभी फिर रूठना उनका"-- इस मिसरे को अगर यूँ लिखा जाए तो शायद ज़्यादा सही लगे :-
"कभी गुस्सा कभी आँसू कभी नाराज़गी उनकी "

--मतले में क्या कहा गया है , सही से समझ नहीं पाया

Comment by Alok Rawat on July 10, 2018 at 2:52pm

भाई मोहम्मद आरिफ जी आपका बहुत-बहुत शुक्रिया कोशिश करूँगा कि आगे और भी बेहतर कह सकूं..

Comment by Alok Rawat on July 10, 2018 at 2:49pm

भाई श्याम नारायण वर्मा जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by Shyam Narain Verma on July 10, 2018 at 10:16am
बहुत बहुत बधाई आपको इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए सादर ।
Comment by Mohammed Arif on July 9, 2018 at 8:32pm

आदरणीय आलोक रावत जी आदाब,

                                 सबसे पहले ओबीओ साहित्य के लब्धप्रतिष्ठित मंच पर आपका दिली इस्तक़बाल है ।

                                                        बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल । हर शे'र बह्र की कसौटी पर खरा नज़र आ रहा है । शे'र शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे । मंच पर सक्रियता बनाए रखें ।

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