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ग़ज़ल...धूल की परतें-बृजेश कुमार 'ब्रज

1222 1222 1222 1222
गुलाबों से किताबों तक समाईं धूल की परतें
जरा देखो तो अब माथे पे आईं धूल की परतें!!

ये किस आगोश ने सारे शहर को घेर के रक्खा
घना है कोहरा या फिर हैं छाईं धूल की परतें?

गया इक वक़्त वो आया न तो सन्देश ही आया
हमीं ने रिश्ते नातों पर चढ़ाईं धूल की परतें

गिला इस बात का उनसे करें भी तो करें कैसे
गमे दिल ने मेरे लब पर सजाईं धूल की परतें

बड़े ही फख्र से छोड़ी थीं अपने गाँव की गलियां
मगर 'ब्रज' को यही गम है कमाईं धूल की परतें
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on January 22, 2018 at 11:46am

आदरणीय बृजेश ब्रज जी उम्दा अशआर कहे हैं,हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on January 22, 2018 at 10:17am

जनाब ब्रजेश कुमार साहिब ,अच्छी ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं।

शेर2  का सानी मिसरा बह्र में नहीं है ,उसे यूँ करलें --घना कुहरा है या  हर सू हैं  छा इं  धूल की परतें । शेर5 उला मिसरा ,मगरूरियत कोई शब्द नहीं है ,उसे इस तरह कर सकते हैं --बड़े ही फख्र से छोड़ीं थीं अपने गांव की गलियां

Comment by Ravi Shukla on January 22, 2018 at 10:12am

आदरणीय बृजेश जी बढि़या गजल कही आपने बधाई स्‍वीकार करें । मकते का भाव अच्‍छा लगा । सादर 

Comment by SALIM RAZA REWA on January 22, 2018 at 8:51am
सुंदर क़फ़िया और ग़ज़ल के लिए मुबारक़बाद बृजेश जी

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