खुद को भूली वो जब दिन भर के काम निपटा कर अपने आप को बिस्तर पर धकेलती तो आँखें बंद करते ही उसके अंदर का स्व जाग जाता और पूछता " फिर तुम्हारा क्या". उसका एक ही जवाब "मुझे कुछ नहीं चाहिए. कभी ना कभी तो मेरा भी वक्त आएगा. उसे याद है अपने छोटे से घर की खिड़की के पास हमेशा डेरा डाले रहती. हाथ में अभ्यास की पुस्तक और बाहर के आंगन का सारा नज़ारा उसका अपना होता. कभी ढेर सारे तोते आ बैठे अमरुद पर खूब शोर मचाते. कभी-कभी चिड़िया आ बैठती मुंडेर पर वो दौडकर दाना लाती और जैसे ही बिखेरती वो फुर्र से उड जाती मगर फिर धीरे-धीरे उनकी दोस्ती हो गई थी. घर में सिर्फ़ बाबा थे जो काम पर निकल जाते . माँ तो थी ही नही जो उसे टोकती क्या ताक-झाक करती रहती है. पेड़ो पक्षियों के बीच कितना उन्मुकत जीती थी. सोती भी तो खिड़की के नीचे ही बिस्तर लगा कर. आँख खुलती भी उससे छनकर आने वाली रोशनी से तब जब पक्षियों का झुंड गुजरता था शोर मचाते हुए उसके सामने से.
" क्या हुआ रमा? नींद में बडा हँस रही हो. कुछ सपना देखा है क्या" कान्हा ने उसे हिलाते हुए पूछा
" नहीं तो! नही तो! "
" तुम भी ना पता नहीं किस दुनिया में जीती हो" उठो अब भोर होने को हैं. "
" हा ! कान्हा मैने सपने में उस खिड़की से बगुलो का एक झुंड का झुंड हवा में उन्मुक्त उड़ते देखा ." अंगड़ाई लेते रमा उठ खड़ी हुई.
" अब ज्यादा उडो मत. ढेर सा काम पडा है." कान्हा ने झल्लाते हुए कहा
उसने अपनी अस्तव्यस्त साडी को ठीक किया , खिड़की से छनकर आती सुबह की धूप को प्रणाम किया और एक निर्णय के साथ बाहर को निकल पडी
मौलिक व अप्रकाशित
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अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई।
आद0 नयना जी सादर अभिवादन।बढ़िया लघुकथा लिखी आजन, इस प्रस्तुति पर बधाई।सादर
मोहतरमा नयना जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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