पहन रखा हैं
मैने गले में, एक
गुलाबी चमक युक्त
बडा सा मोती
जिसकी आभा से दमकता हैं
मेरा मुखमंडल
मैं भी घूमती हूँ इतराती हुई
उसके नभमंडल में
किंतु नहीं जानती थी
समय के साथ होगा
बदलाव उसमें भी
धूप, बादल, बारिश
आंधी के थपेड़ो को झेलते
बदलेगा उसका तेज
बुरी, काली,झपटने को आतुर
लोंगो की नज़रों से
बदलेगा उसका वैभव
अब तक उसे हथेली की
अंजुरी में रख निहारने वाली मैं
निस्तब्ध हूँ
कोशिश में लगी हूँ कि
अब ढक लू उसे हथेलियों से कि
ना पड़े ऐसी कोई दृष्टि
जो खत्म कर दे
उसकी भव्यता
और तब गले में लटका वह मोती
पिरो लेती हूँ एक
लंबे से धागे में लटकाते हुए
जो अब रहेगा मेरे
सीने में बिल्कुल
हृदय के निकट स्पर्श करता हुआ.
"मौलिक व अप्रकाशित"
©नयना(आरती)कानिटकर
१९/०६/२०१९
Comment
आ. विजय जी, सुशिल जी, डा. छोटेलाल जी आप सभी का आभार.समर जी अवश्य सुधार करती हूँ.
भाव अच्छे पिरोय हैं। रचना अच्छी लगी। बधाई आदरणीया नयना जी।
मुहतरमा नयना(आरती)कानिटकर जी आदाब,अच्छी कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'मैं भी घूमती हूँ ईतराती हुई'
इस पंक्ति में 'ईतराती' को "इतराती" कर लें ।
आदरणीया जी अंतर्मन के भावों को चित्रित करती इस भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई।
आदरणीया नयना जी बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
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