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पहाड़ी नारी  (लम्बी कविता 'राज')

पहाड़ी नारी  

कुदरत के रंगमंच का    

बेहद खूबसूरत कर्मठ किरदार   

माथे पर टीका नाक में बड़ी सी नथनी

गले में गुलबन्द ,हाथों में पंहुची,

पाँव में भारी भरकम पायल पहने

कब मेरे अंतर के कैनवास पर

 चला आया पता ही नहीं चला

 पर आगे बढने से पहले ठिठक गई मेरी तूलिका 

 हतप्रभ रह गई देखकर

एक  ग्रीवा पर इतने चेहरे!!!

कैसे संभाल रक्खे हैं  

हर चेहरा एक जिम्मेदारी के रंग से सराबोर

कोई पहाड़ बचाने का

कोई जंगल बचाने का

कोई पलायनवाद रोकने का

कोई नदी बचाने का

कोई अपना अस्तित्व बचाने का

किस अद्दभुत मिट्टी से बना हुआ है ये जिस्म

इस पहाड़ी नारी का?

कहाँ है इसका आसमान? उसपर कैसे चिपकाऊँ  सूरज   

इसका सूरज तो खेतों में उगता है

गदेरों से खींचे गए पानी की बाल्टियों, मटकियों में उगता है

सर पर रक्खे हुए घास के डेर में उगता है

इसकी आँखों में करुणा और संघर्ष का काजल दूर तक भासमान है

जो  चमकता नहीं दहकता है

मेरे कैनवास के दूसरे किरदार

जब  हड्डियों को कंपकंपाने वाली सर्दी में

रिजाई में दुबके होते हैं

तब ये माथे पर पसीना ओढ़े

भीगे बदन से चिपके वस्त्रों से उड़ती हुई भाप लिए

नुकीले पथरीले पहाड़ों से मीलों की दूरी तय करते हुए

सर पर औकात से ज्यादा बोझा लिए हुए

घर की दहलीज पर पाँव रखती होती है

तब तक इसका सूरज

इसकी हथेलियों और पाँव के छालों में पिघल चुका होता है

ये एक ऐसी पहाड़ी नदी है जिस पर कोई पुल नहीं

जिसमे कोई किश्ती या शिकारा नहीं चलता

बस पत्थरों के नुकीले जबड़ों से चिन्दा चिंदा बदन

लिए चुपचाप अनवरत बहती रहती है

न जाने कितने उदर चिपके हैं इस एक जिस्म में

जिनकी भूख शांत करते-करते

इसकी देह इसकी जिन्दगी भी पहाड़ सी हो गई है  

 चाँदनी रात में जहाँ दूसरे  किरदार

क्लबों में पार्टियों में जश्न मनाते हैं

बदन थिरकाते हैं   

 ये चूल्हे में उठते हुए गीली लकड़ियों

के धुएँ को  धौंकनी से अपने फेफड़ों में भरती हैं  

हथेलियों  पर  रोटी  की थपथप  

आंचल में स्तनपान की चपचप

सामने बैठे कई भूखे उदर की थालियों कटोरियों की खट-पट   

वहीँ थोड़ी दूरी पर चारपाई से दारु के सुरूर में चूर

 जिस्मानी भूख लिए हुए बेसब्री से घूरती हुई एक जोड़ी आँखें 

 फिर भी इसके चेहरे पर न कोई थकन न कोई शिकन

कहाँ से भरा ये रंग हे नारी?

सहन शीलता की पराकाष्ठा को छूते छूते

आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता,आत्मसम्मान

 सशक्तिकरण के कुछ और अच्छे नये रंग

ढूँढने निकल चुकी है आज ये घर से बाहर

नित नई चुनौतियों  का सामना करती हुई   

नये नये सौपान चढ़ती हुई  

बढ़ रही है उस गगन की  ओर

जहाँ खुद अपने हाथों से

अपने हिस्से के सूरज को अपने आसमान पर  दैदीप्यमान करेगी  

जिसे देख कर सारी दुनिया कहेगी  

वो देखो पहाड़ की नारी, एक सशक्त  नारी

और उस दिन होगा मेरा ये  किरदार सम्पूर्ण... |

 

(इस कविता ने उत्तराखंड महिला एसोसीएशन द्वारा आयोजित काव्य प्रतियोगिता में द्वित्य स्थान प्राप्त किया  तथा आकाशवाणी देहरादून से प्रसारित भी हुई )

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 6, 2018 at 12:44pm

आद० सुशील सरना जी ,कविता कि रूह में उतर कर कविता के विषय में अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए बहुत बहुत आभार .मेरा लिखना सार्थक हो गया .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 6, 2018 at 12:42pm

आद० सुरेन्द्र नाथ भैया आपको कविता पसंद आई आपका बहुत बहुत शुक्रिया .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 6, 2018 at 12:42pm

आद० मोहम्मद आरिफ़ जी ,आपको कविता पसंद आई आपका बहुत बहुत शुक्रिया 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 6, 2018 at 12:41pm

आद० मोहित मिश्र जी ,आपको कविता पसंद आई आपका हृदय तल से शुक्रिया .

Comment by Samar kabeer on January 6, 2018 at 12:11pm

बहना राजेश कुमारी जी आदाब,कवित बहुत उम्दा है इसमें शक नहीं,और इसे सरसरी तौर पर पढ़ना भी इसकी तौहीन होगी,हालांकि जनाब सौरभ पाण्डेय साहिब की समीक्षा बहुत कुछ बयान कर रही है, इसका संज्ञान आप अवश्य लेंगी,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

अभी इस कविरा की रूह में उतरने के बाद पुनः इस पर आता हूँ ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 6, 2018 at 11:07am

कविता को आद्योपांत पढ़ तो कल ही गया था. लेकिन इस उधेड़-बुन में था कि कहना प्रारम्भ कहाँ से करूँ. ऐई दशा हमेशा नहीं होती. लेकिन इस बार हुई. विशेष कर इस लिए कि इस कविता को ओबीओ के पटल पर आने के पूर्व ही पुरस्कृत व सम्मानित किया जा चुका है. हालाँकि, मेरे लिए यह विन्दु एक सीमा के आगे बहुत मायने नहीं रखता, आदरणीया राजेश जी, ये आप भी जानती हैं.

कविता अपने कथ्य के कारण आकर्षित तो करती ही है. अन्य मानकों पर भी विशिष्ट बन पड़ी है. कथ्य कई स्थानों पर अभिधात्मक हो गया है. हालाँकि, एक तरह से यह इस कविता की मांग भी है. लेकिन, फिर, सपाटबयानी या ऐसी किसी दशा पर ये पंक्तियाँ भरपूर प्रहार करती हैं - 

// भीगे बदन से चिपके वस्त्रों से उड़ती हुई भाप लिए

नुकीले पथरीले पहाड़ों से मीलों की दूरी तय करते हुए

सर पर औकात से ज्यादा बोझा लिए हुए

घर की दहलीज पर पाँव रखती होती है

तब तक इसका सूरज

इसकी हथेलियों और पाँव के छालों में पिघल चुका होता है

ये एक ऐसी पहाड़ी नदी है जिस पर कोई पुल नहीं

जिसमे कोई किश्ती या शिकारा नहीं चलता

बस पत्थरों के नुकीले जबड़ों से चिन्दा चिंदा बदन

लिए चुपचाप अनवरत बहती रहती है //

सच कहूँ तो इन संदर्भों में यह कविता कवयित्री के निजी तौर पर मानसिक ऊहापोह का बखान है जहाँ पहाड़ी स्त्री से प्रभावित हुई वह अपने वर्तमान की जीवन-शैली और सहज-उपलब्धताओं पर क्षुब्ध है. यहाँ कवयित्री आम शहरी स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती हैं. यह कविता इसी कोण से बड़ी हो जाती है.

यह अवश्य है कि इस प्रयास में एक सीमा के आगे शाब्दिक होने से बचना था.

इस परिप्रेक्ष्य में कविता की आखिरी पंक्तियों को देखा जा सकता है. 

// जिसे देख कर सारी दुनिया कहेगी  

वो देखो पहाड़ की नारी, एक सशक्त  नारी

और उस दिन होगा मेरा ये  किरदार सम्पूर्ण... //

उपर्युक्त पंक्तियाँ कवयित्री की उम्मीदों और उसके वायव्य-विजय का उद्घोष अधिक है. इन पंक्तियों का होना कवयित्री को तो बड़ा करता है, लेकिन इनका न होना कविता को और बड़ा करता. 

आदरणीया राजेश जी, आपकी इस विशिष्ट कविता के लिए हृदयतल से बधाइयाँ और अशेष शुभकामनाएँ ..

आपकी भावप्रणवता ऐसी रचनाओं को सुलभ करे.

सादर

Comment by pratibha pande on January 6, 2018 at 9:18am

वाह आदरणीया राजेश जी पहाड़ी स्त्री के संघर्ष और कष्टों का सजीव चित्रण, हार्दिक बधाई व साधुवाद। एक कुमाँउनी गाने की पंक्ती इस कविता के परिद्र्श्य मे आपके साथ साझा करने से अपने को रोक नहीं पा रही हूँ । 'उठ मेरी पुन्यूँ की जूना, उठ मेरी नारिंगे दाणीं' ( मेरी पूनम की चाँद, नारंगी की फाँक उठ जा) इस पूरे गाने मे पति बहुत प्यार से चाय का ग्लास लेकर पत्नि को उठा रहा है ताकि वो घर बाहर दोनो के काम मे जुट जाय और वो घर मे बैठा चिलम फूँकता रहे। गाना बहुत पुराना है पर पहाड़ के गाँवों मे आज भी स्त्री के लिये अधिक कुछ नहीं बदला।

Comment by Sushil Sarna on January 5, 2018 at 7:32pm
Waaaaaaaah anupm aprtim prastuti Mam....naari antrmn ki bhaanaaaon ka antas ko chhootee avrneey chitran ...haardik badhaaèeeeeeeeeee is srijan aur prsaaran ke liye aadrneeya mam

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 5, 2018 at 12:18pm

मुक्तिबोध का महिला संस्करण ! .. :-))))

हा हा हा हा... 

यह तो हुई रचना को देखते ही उपजे भाव के अनुरूप प्रतिक्रिया. अब चला इस लम्बी कविता को पढ़ने .. फिर आता हूँ 

सादर .. :-))

Comment by नाथ सोनांचली on January 5, 2018 at 12:09pm

आद0 बहन राजेश कुमारी जी सादर अभिवादन। बढ़िया रचना बनी हैं। इसे पुरस्कृत होने पर आपको बहुत बहुत बधाई। सादर

कृपया ध्यान दे...

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