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ग़ज़ल - इधर उधर की बातें

हमने भी की इधर-उधर की बातें...
तुमने समझी इधर-उधर की बातें...

खो गये अर्थ वायदों के जब,
याद आयी इधर-उधर की बातें...

जब सरेआम चोरी पकडी गई,
फिर भी की इधर-उधर की बातें...

रोज वो ताश खेलने बैठें,
धूप करती इधर-उधर की बातें..

मुझ पे विश्वास कर महब्बत में,
छोड पगली इधर-उधर की बातें..

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by नाथ सोनांचली on December 26, 2017 at 8:38am

आद0 सूबे सिंह सुजान जी सादर। अभिवादन।। ग़ज़लका बढ़िया प्रयास किया आपने।अरकान नहीं लिखा आपने। इस प्रस्तुति पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

Comment by सूबे सिंह सुजान on December 25, 2017 at 9:33am

आप सभी सम्मानित सदस्यों का बहुत बहुत धन्यवाद ।

एक पुरानी ग़ज़ल थी ।

कमियाँ हैं स्वीकार्य हैं ।

Comment by Samar kabeer on December 24, 2017 at 3:14pm

जनाब सूबे सिंह सुजान जी आदाब,बहुत अर्से बाद आपकी रचना के दर्शन हुए,कहाँ थे भाई ?

ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

ग़ज़ल में क़ाफ़िया दोष है,आप 'ईं' का क़ाफ़िया लेकर चले लेकिन उसे निबाह नहीं सके,और न आपने शब्दों में अनुस्वार लगाये,देखियेग,ग़ज़ल के साथ अरकान भी लिखें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 24, 2017 at 1:33pm

हार्दिक बधाई, आ. भाई सूबे सिंह जी।

Comment by Mohammed Arif on December 24, 2017 at 7:55am

आदरणीय सूबे सिंह जी आदाब,

                         ग़ज़ल कहने का प्रयास अच्छा है । ग़ज़ल के ऊपर आपने ग़ज़ल के अर्कान नहीं लिखे हैं । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

Comment by Kalipad Prasad Mandal on December 23, 2017 at 8:09pm

आ सूबे सिंह जी , बढ़िया गाजी हुई है , गुणी की प्रतीक्षा कीजिये | बधाई आपको |

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