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एक नवगीत - सूरज सन्यास लिए फिरता

अँधियारे गद्दी पर बैठा,

सूरज सन्यास लिए फिरता

 

नैतिकता सच्चाई हमने,

टाँगी कोने में खूँटी पर.

लगा रहे हैं आग घरों में,

जाति धर्म के प्रेत घूमकर.

सत्ता की गलियों में जाकर,

खेल रही खो-खो अस्थिरता.

 

तृष्णाओं की नदी बह रही,

बाँध नहीं कोई बन पाया.

वैभव के सूरज के सँग सँग,

दूर हो रहा अपना साया.

 

रोज नए शिखरों को छू लें,

स्वप्न रहा आँखों में तिरता.

प्रेम और सद्भाव रूठकर,

चले गए हैं लम्बी छुट्टी.

साथ गुजारा जिसके बचपन,

उस मस्ती ने कर ली कुट्टी.

 

बिन पानी का बादल छत पर,

सुबह शाम बस रहता घिरता.

 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

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Comment by रामबली गुप्ता on September 1, 2017 at 7:01am
बहुत ही शानदार नवगीत हुआ है आदरणीय। हार्दिक बधाई स्वीकारें।

मुखड़े की दूसरी लाइन में प्रवाह कुछ बाधित है। एक बार पुनः देखने का अनुरोध है। सादर
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 1, 2017 at 6:30am
सुंदर नवगीत । हार्दिक बधाई , आ. भाई बसंत जी ।
Comment by बसंत कुमार शर्मा on August 31, 2017 at 7:05pm

आभार आदरणीय फूल सिंह जी आपका , सादर 

Comment by PHOOL SINGH on August 31, 2017 at 4:04pm

बेहतरीन

Comment by बसंत कुमार शर्मा on August 31, 2017 at 12:00pm

आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी, आपकी सदाशयता को साधुवाद, हो जाता है कभी कभी ऐसा, यूँ ही स्नेह बनाये रखें सादर.

Comment by बसंत कुमार शर्मा on August 31, 2017 at 11:59am

अतिशय आभार आपका आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, इसी तरह स्नेह बनाये रखें सादर

 

Comment by नाथ सोनांचली on August 31, 2017 at 4:47am
माफी चाहूँगा, यह नवगीत है, लिखते समय चाहा तो था कुछ और पर लिख गया कुछ और। पुनश्च माफी मांगता हूं।

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 30, 2017 at 8:31pm

आदरनीय बसंत भाई , वर्तमान परिस्थितियों पर खूब सूरत नवगीत रचना हुई है , हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by बसंत कुमार शर्मा on August 30, 2017 at 6:33pm

आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी आपका दिल से शुक्रिया , शायद गलती से आपने इसे गजल लिख दिया है, यह नवगीत है , सादर

Comment by बसंत कुमार शर्मा on August 30, 2017 at 6:32pm

आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आपका दिल से शुक्रिया

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