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खाला अपने रसोई में लगी हुई थीं, अब रमजान महीने के बस दो ही दिन तो बचे थे और अलीम बड़के शहर से आज ही आ रहा था. सबेरे सबेरे उन्होंने पड़ोसी मियां की दूकान से एक बार फिर लगभग गिड़गिड़ाते हुए सामान ख़रीदा था. अभी पिछले महीने का भी पूरा पैसा दिया नहीं था उन्होंने तो उम्मीद कम ही थी कि सामान मिल ही जायेगा. लेकिन एक तो उन्होंने बेटे के आने की खबर सुना दी थी और दूसरे आने वाली ईद, मियां ने थोड़े ना नुकुर के बाद सामान दे दिया.
"देखो खाला, इस बार अगला पिछला सब हिसाब चुकता हो जाना चाहिए, मेरे भी बाल बच्चे हैं".
"इस बार अल्लाह की दुआ से सब चुकता कर दूंगी मियां, बेटा आ रहा है ना" कहते कहते उनका चेहरा जैसे रोशन हो उठा.
जल्दी जल्दी पूरे टपरी में उन्होंने झाड़ू लगाया और धूल के चलते उनकी पुरानी खांसी फिर उभर आयी. अब मुआं इस खांसी को भी अभी ही उभरना था, सोचते हुए वह दो मिनट के लिए दम लेने बैठ गयीं.
"अम्मी, इस बार आऊंगा तो तुमको डाक्टर को दिखा दूंगा, तुम्हारी खांसी नहीं जा रही है", एक दिन वह फोन पर कह रहा था. दरअसल जब भी उसका फोन आता, बगल वाली रशीदा अपने टपरी से ही आवाज लगाती कि खाला आओ, तुम्हारे अलीम का फोन है, और वह भागते हुए जातीं. अब इस उम्र में भागने से उनकी सांस फूल जाती और वह खांसने लगतीं.
"अरे मुझे कुछ नहीं हुआ है रे, तू अपना ख्याल रखिओ. खाना पीना तो ठीक से करता है कि नहीं", और अलीम को इससे ज्यादा कुछ पूछने का मौका नहीं देती थीं वह.
जब तक उसके अब्बा जिन्दा थे, ज्यादा कुछ सोचने के लिए नहीं था उनके पास. एक बड़ी बेटी थी जिसका निकाह करवाकर वह बहुत सुकून से थीं. दामाद राजमिस्त्री था और वह बेटी को लेकर बड़े शहर चला गया था . लेकिन अलीम के अब्बा के इंतकाल के बाद तो जैसे एकदम से उनकी समझ बढ़ गयी थी. अलीम भी १० वीं पास कर चुका था और काम के सिलसिले में बड़े शहर निकल गया. पिछले एक साल में एक बार ही आया था और इस ईद पर उसके आने की खबर ने जैसे उनको फुर्तीला बना दिया था.
कड़ाही से निकलती सालन की खशबू ने उनको वर्तमान में ला खड़ा किया. अब तो अलीम के आने का समय भी हो रहा है और इफ्तार का समय भी, उनके हाथ जल्दी जल्दी कड़ाही में चलने लगे. कितना कुछ बनाना है बेटे के लिए, सोचकर उनके चेहरे पर मुस्कराहट फ़ैल गयी.
बाहर गली में हो रहे कुछ शोर सुनकर उनको लगा की अलीम आ गया लगता है. इतने में उनके दरवाजे की कुण्डी जोर जोर से खड़खड़ाने की आवाज आने लगी.
"आती हूँ, क्यों इस कुण्डी की जान ले रहा है तू", कहकर उन्होंने कमर को हाथ लगाया और खड़ी होकर उन्होंने दरवाजा खोला.
"अलीम, कहाँ छुपा है रे, सामने क्यों नहीं आता? सामने पड़ोसियों की भीड़ देखकर उनको लगा कि शैतानी में अलीम इनके बीच छुपा हुआ है. लेकिन भीड़ में से लोगों के उतरे चेहरे को देखकर उनको अजीब सा लगा. अभी वह कुछ और सोच पाती कि रशीदा ने रोते हुए उनको अपने बाँहों में भर लिया.
"क्या हुआ, क्यों रो रहे हो तुम सब, मेरा अलीम कहाँ है?, खाला को यह सब देखकर जैसे लकवा मार गया. वह गिरने को हुईं तभी रशीदा ने उनको पकड़कर फर्श पर बैठा दिया और बोली "अभी फोन आया था खाला, कुछ लोगों ने हाथापाई में अलीम की जान ले ली", और भी बहुत कुछ कहती जा रही थी रशीदा लेकिन खाला को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था.
कड़ाही में पकता सालन जलने लगा था और उससे उठता धुआं टपरी में फैलने लगा था.
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on June 28, 2017 at 7:02pm

बहुत बहुत आभार आ तेजवीर सिंह जी

Comment by TEJ VEER SINGH on June 28, 2017 at 11:19am

हार्दिक बधाई ।बेहतरीन प्रस्तुति।

Comment by विनय कुमार on June 27, 2017 at 10:17am

बहुत बहुत आभार आ नीता कसार जी 

Comment by विनय कुमार on June 27, 2017 at 10:17am

बहुत बहुत आभार डॉ आशुतोष मिश्रा जी 

Comment by विनय कुमार on June 27, 2017 at 10:16am

बहुत बहुत आभार आ मोहम्मद आरिफ जी 

Comment by विनय कुमार on June 27, 2017 at 10:16am

बहुत बहुत आभार आ सुनील प्रसाद शाहाबादी जी 

Comment by Nita Kasar on June 26, 2017 at 3:43pm
सत्य घटना पर आधारित कथा के लिये बधाई आद० विनय सिंह जी ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 26, 2017 at 3:25pm
बहुत ही मार्मिक रचना अभी टी वी पर इसी रचना जैसी घटना पर समाचार सुन रहा था इस रचना के लिए ढेरों बधाई सादर
Comment by Mohammed Arif on June 24, 2017 at 11:02pm
आदरणीय विनय कुमार जी आदाब, बहुत ही बेहतरीन कसावट वाले कथानक वाली लघुकथा । साथ ही जिज्ञासा का संचार भी करती हुई । अनहोनी या अप्रत्याशित होने का नाम ही जीवन है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 24, 2017 at 2:19pm
बड़ा ही मार्मिक कहानी आदमी सोचता कुछ है और हो कुछ जाता है। बधाई आपको

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