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श्वासों का क्षरण ...

श्वासों का क्षरण ...

मैं
बहुत रोयी थी
अपने एकांत में
तेरे बाद भी
कई रातों तक
तेरे अंक में सोयी थी
तेरा जाना
एक घटना थी शायद
दुनियां के लिए
मगर
असंभव था
तुझे विस्मृत करना
मैं तेरे गर्भ के अंक की
पहचान थी
और तू
मेरे स्मृति अंक की श्वास
सच
कोई भी नहीं देख पाया
मेरे रुदन को
तूने कैसे देख लिया
शुष्क पलकों में
तू मुझसे कल
मिलने आयी थी
अपने अंक में
तूने मुझे सुलाया था
कितना आग्रह किया था
तुझसे लौट आने का
तू फिर आने का आश्वासन दे
मेरी शुष्क पलकों के किनारों पर
अपनी ममता की बूँद गिरा
चली गयी
मैं उस बूँद को अपनी हथेली में समेटे
हर रात
तेरे आने की प्रतीक्षा में
श्वासों का क्षरण
करती रही
माँ

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित



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Comment

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 16, 2017 at 5:40pm

भाव पूर्ण रचना | हार्दिक बधाई 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 10, 2017 at 8:34pm
अद्भुत भावों से ओतप्रोत रचना..हार्दिक बधाई
Comment by Sushil Sarna on June 9, 2017 at 3:05pm

आदरणीय बसंत कुमार जी अपनी स्नेहिल प्रतिक्रिया से सृजन को अलंकृत करने का हार्दिक आभार।

Comment by Sushil Sarna on June 9, 2017 at 3:05pm

आदरणीय  Mahendra Kumar जी प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।

Comment by बसंत कुमार शर्मा on June 7, 2017 at 10:21pm

 वाह लाजबाब अल्फाज 

Comment by Mahendra Kumar on June 7, 2017 at 8:19pm

"मैं तेरे गर्भ के अंक की पहचान थी और तू मेरे स्मृति अंक की श्वास" वाह! माँ-बेटी के पावन रिश्ते पर प्रस्तुत इस उम्दा रचना हेतु दिल से बधाई स्वीकार कीजिए आ. सुशील सरना जी. सादर.

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