२१२२/११२२/२२ (११२)
रोज़ जो मुझ को नया चाहती है
ज़िन्दगी मुझ से तू क्या चाहती है?
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मौत की शक्ल पहन कर शायद
ज़िन्दगी बदली क़बा चाहती है.
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मशवरे यूँ मुझे देती है अना
जैसे सचमुच में भला चाहती है.
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इक सितमगर जो मसीहा भी न हो,
नई दुनिया वो ख़ुदा चाहती है.
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“नूर’ बुझ जाये चिराग़ों की तरह
क्या ही नादान हवा चाहती है.
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निलेश"नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. विजय जी
गज़ल बहुत ही अच्छी लगी। मुबारकबाद।
शुक्रिया आ. अनुराग जी
आभार
शुक्रिया आ. सुरेन्द्रनाथ सिंह साहब
एक बार फिर शुक्रिया आ. समर सर
शुक्रिया आ. महेंद्र कुमार जी
आ. निलेश जी, ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है। अना को आपने बहुत सही पकड़ा है। सच है कि यह भला करने की अपेक्षा नुकसान ही कराती है। इस उम्दा प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
शुक्रिया अ. बृजेश जी ...
अगर हाफ़िज़ जालंधरी और फ़राज़ जैसे शाइरों ने मशवरा दिया जाने पर बाँधा है तो हमें ही आपत्ति क्यूँ हो ...
सादर
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