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ग़ज़ल-नूर की- ऐसा लगता है फ़क़त ख़ार सँभाले हुए हैं,

2122/1122/1122/22
.

ऐसा लगता है फ़क़त ख़ार सँभाले हुए हैं,
शाख़ें, पतझड़ में भी क़िरदार सँभाले हुए हैं.
.
जिस्म क्या है मेरे बचपन की कोई गुल्लक है  
ज़ह’न-ओ-दिल आज भी कलदार सँभाले हुए हैं.   
.
आँधियाँ ऐसी कि सर ही न रहे शानों पर,
और हम ऐसे में दस्तार सँभाले हुए हैं.
.
वक़्त वो और था; तब जान से प्यारे थे ख़ुतूत
अब ये लगता है कि बेकार सँभाले हुए हैं.
.
टूटी कश्ती का सफ़र बीच में कुछ छोड़ गए,  
और कुछ आज भी पतवार सँभाले हुए हैं.
.
मुझ को मिल जाये अगर तू, मैं लिपट कर रो लूँ,
आँखें अब तक तेरा इन्कार सँभाले हुए हैं.
.
तेरी दुनिया के टिके रहने में तेरा क्या हाथ?
इस को तो “नूर” से ख़ुद्दार सँभाले हुए हैं.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2018 at 8:10am

धन्यवाद आ. महेंद्र जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2018 at 8:10am

धन्यवाद आ. रवि जी 

Comment by Mahendra Kumar on April 28, 2017 at 9:54pm
आदरणीय निलेश जी, क्या ख़ूब संभाला है आपने। उम्दा ग़ज़ल! हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
Comment by Ravi Shukla on April 27, 2017 at 5:50pm

क्‍या कहने आदरणीय नीलेश जी हर शेर पढ कर मजा आ गया वाह वाह बहुत खूब  । मुबारक बाद पेश है

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 26, 2017 at 11:12pm

शुक्रिया आ. बृजेश जी 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 26, 2017 at 10:13pm
मुझ को मिल जाये अगर तू, मैं लिपट कर रो लूँ,
आँखें अब तक तेरा इन्कार सँभाले हुए हैं...वाह वाह आदरणीय बेहतरीन ग़ज़ल हुई..सादर
Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 26, 2017 at 5:21pm
धन्यवाद आदरनीय
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2017 at 9:18pm

कलदार खनकने वाले टंच सिक्के को कहते हैं..
ख़ुतूत ..ख़त का बहुवचन है 
दस्तार ..पगड़ी को कहते हैं 
सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 25, 2017 at 9:11pm
कलदार खुतूत दस्तार इन शब्दों के अर्थ आदरणीय
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2017 at 8:57pm

शुक्रिया आ. डॉ. आशुतोष जी ...आप यदि शब्द इंगित करेंगे तो मैं अर्थ लिख दूँगा ..
सादर 

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