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आदरणीया प्राची जी ..पढने में अति सुंदर लगा ..इस शानदार गीत के लिए बधाई /
गुमसुम गुपचुप ठिठकी सी खिड़की ने अपनी
छोड़ी सकुचाहट भर ली जी भर अँगड़ाई,
रेशम पर बिखरे फूलों ने सिलवट-सिलवट
आहिस्ता से रीत मोहब्बत की दोहराई,....एक निवेदन है इन पंक्तियों को मैं पूरी तरह समझ नहीं पा रहा हूँ ..आप इन पंक्तियों को समझने में मेरी मदद करें ..ऐसी तमाम गहन रचनाओं में आदरणीय सौरभ सर मुझ जैसे अल्प जानकारों की मदद अपनी गहन प्रतिक्रीय से कर देते हैं जिससे गहन रचनाओं को समझने में मदद के साथ चिंतन को दिशा मिलती है / सर की बिस्तृत प्रतिक्रिया के न होने के कारण आपसे निवेदन है सादर
आदरणीया प्राची जी, बधाई इस बेहतरीन रचना के लिए| सादर
कमाल ! कमाल !!
प्रस्तुति के कथ्य में वैचारिक ऊहापोह जिस तरह से उभर कर आया है, वह कई तरह के भाव-उद्बोधन का कारण बन रहा है. सुगढ़ किन्तु सहज प्रस्तुति पर हृदयतल से बधाइयाँ स्वीकारें, आदरणीया प्राचीजी.
प्रस्तुत गीत पर आप सबके उत्साहवर्धक अनुमोदन के लिए सादर धन्यवाद आ० समर कबीर जी, आ० मोहम्मद आरिफ जी, आ० सतविन्द्र कुमार जी, आ० इंद्रा विद्या वाचस्पति तिवारी जी , और आ० लक्ष्मण धामी जी
आ. प्राची बहन , सनडर गीत रचना हुई है हार्दिक बधाई .
डा0 प्राची सिह जी आपने सच ही कहा हैः-
टाट-टाट मटमैले धूल सने रिश्तों पर
उम्मीदों का मखमल आखिर कब तक मढ़ना,
लाख मुखौटे ओढ़े हों चाहे दुनिया ने
सीख चुका मन अब सच्चे चेहरों को पढ़ना,
दर्द भरी आँखों से दिल पर रख कर पत्थर
हर जर्जर बन्धन की गिरहें खोल रहा है।
मन को छू लेने वाली व समझदार बनाने वाली रचना के हार्दिक बधाईण्
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