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ग़ज़ल - तू वो ही है , जो सच में है तेरे अंदर ( गिरिराज भंडारी )

1222    1222    1222   

उसे कह दो जहाँ हूँ मैं वहाँ समझे

ज़मीं हूँ मैं, न मुझको आसमाँ समझे

 

हो किससे गुफ़्तगू इस दश्ते वीराँ में

कोई तो हो, जो मेरी भी ज़बाँ समझे

 

हक़ीक़त आशना है क्यूँ भला वो भी

है राहे संग उसको कहकशाँ समझे

 

छिनी रोटी तो छायी बद हवासी है

मुझे मयख़्वार क्यूँ सारा जहाँ समझे

 

मुहज़्ज़ब जो दबा लेता है नफरत, को

सही समझे अगर, आतिशफ़िशाँ समझे 

 

तू वो ही है , जो सच में है तेरे अंदर 

तू वो भी है, जो तुझको ये जहाँ समझे

 

परिन्दा एक देखो ज़िद पे बैठा है      

कफस के दायरे को आसमाँ समझे

 

हरारत धूप सी देने लगा है वो 
जिये अब तक, जिसे हम सायबाँ समझे

 

पराये भी समझने का किये दावा

मगर है सच, कि अपने भी कहाँ समझे 

 

समय का आखिरी सफ़हा ये कह देगा

वो फ़ानी था जिसे तुम जाविदाँ समझे

************************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 23, 2016 at 7:55pm

aa0 anuj ---behtareen .

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on November 23, 2016 at 7:30pm

मुहतरम जनाब  गिरिराज  साहिब , अच्छी ग़ज़ल हुई है , दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ---


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 23, 2016 at 7:01pm

आदरणीय गिरिराज सर, क्या खूब ग़ज़ल कही है. मैं तो मतला पढ़ते ही मुग्ध हो गया फिर आगे एक से बढ़कर एक शेर. वाह वाह वाह. इस शानदार ग़ज़ल पर दिल से दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. सादर 

Comment by Samar kabeer on November 23, 2016 at 3:38pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
Comment by Sushil Sarna on November 23, 2016 at 2:42pm

परिन्दा एक देखो ज़िद पे बैठा है
कफस के दायरे को आसमाँ समझे

वाह आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब बहुत ही खूबसूरत नक्काशी की आपने अपनी ग़ज़ल में अपने भावों की। हार्दिक बधाई स्वीकारें।

Comment by नाथ सोनांचली on November 23, 2016 at 2:38pm
वाह वाह वाह वाह वाह, आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, बेहद उम्दा गजल, क्या कहने। हर अशआर पर मेरी वाह है। दिली मुबारकबाद कबूल फरमाएं।

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