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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४५

है ख़ुदी जब तक बनी खुद्दारियाँ जातीं नहीं 
हो अना जब सामने दुश्वारियां जातीं नहीं

मुश्किलें हैं कोह की मानिंद गिर्दोपेश में 
ज़िंदगी की ज़िल्लतोलाचारियाँ जातीं नहीं

हूँ फसां मैं रोज़गारी फ़िक्र के गिर्दाब में 
सख्त हैं हालात जिम्मेदारियाँ जातीं नहीं

दिल हुआ मजरूह जिसकी इक नज़र से उम्र भर 
उस फ़ुसूनेनाज़ की आजारियाँ जातीं नहीं

वो नहीं मुझको मिला सौगात लेकिन दे गया 
खू-ए-सोज़िश हो गई गमख्वारियाँ जातीं नहीं

कर दवा या हो दुआ फ़रियाद करने से फ़क़त 
उल्फ़तेनाकाम की बीमारियाँ जातीं नहीं

अधखिले होंठों से आतीं हैं फुहारें लम्स की 
गुंचा-ए-इब्हाम की बेदारियाँ जातीं नहीं

~ राज़ नवादवी 
०१/१०/२०१६

ख़ुदी- स्वयं के होने का भाव; खुद्दारी- स्वाभिमान; अना- अहम्; दुश्वारियां- मुश्किलें; मानिंद- तरह; गिर्दोपेश- आसपास; ज़िल्लतोलाचारियाँ- अपमान एवं मजबूरियाँ; गिर्दाब- भंवर; मजरूह- घायल; फ़ुसूनेनाज़ की आजारियाँ- प्रेमिका के सौन्दर्य से मिली पीड़ाएं; खू-ए-सोज़िश- दर्द सहने की आदत; गमख्वारियाँ- गम को खा कर जीना; उल्फ़तेनाकाम- असफल प्रेम; लम्स- स्पर्श; गुंचा-ए-इब्हाम- अधखिली कलियाँ; बेदारियाँ- जाग्रतावस्था

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Comment by राज़ नवादवी on October 7, 2016 at 7:22pm

मुह्तरम समीर कबीर साहेब, आदाब अर्ज़ है. आपकी इस्लाह का दिल से ममनून हूँ. किताबें और मंच- दोनों ही हासिल हैं. आपकी हौसलाअफजाई भी. दुकानदारी की भाग-दौड़ से वक़्त निकलने की पूरी कोशिश करूंगा. हम आपके शुक्रगुज़ार हैं कि आप सबके बहदूद और बेहतरी की बात करते हैं चाहे वो गज़लगोई का मसला ही क्यूँ न हो. 

Comment by Samar kabeer on October 6, 2016 at 11:04pm
//मुझे अफ़सोस है कि मुझे रुक्नोअरूज का कुछ खास इल्म नहीं है//

लेकिन इतना कह देने से काम नहीं चलेगा जनाब,अगर ग़ज़ल कहना है तो अरूज़ की कुछ शुद बुद होना ज़रूरी है,आप इसे सीखने का प्रयास करें, किताबों का अध्यन करें,इसके अलावा इस मंच पर भी ये सब सिखाने का प्रबंध है,आप ओबीओ में ग़ज़ल की कक्षा का लाभ उठा सकते हैं ।
Comment by राज़ नवादवी on October 6, 2016 at 12:29pm

जनाब शकूर साहेब, आपने शायद बजा फरमाया है. शुक्रिया 

Comment by राज़ नवादवी on October 6, 2016 at 12:28pm

मुहतरम कबीर साहेब, आपकी मुबारकबाद का दिली शुक्रिया. मुझे अफ़सोस है कि मुझे रुक्नोअरूज का कुछ खास इल्म नहीं है, यह मेरी कमी है. कोशिश है कि दरूनी लय के साथ अपनी बात कहूँ. मैं मानता हूँ कि मेरे अशआर में और भी कई तकनीकी खामियां होंगी. कोशिश जारी रहेगी कि मैं कुदरती लय जैसे लालालाला की तर्ज़ पे अपने अशआर में सही वज़न पैदा कर सकूँ. सादर 

Comment by राज़ नवादवी on October 6, 2016 at 12:16pm

शुक्रिया आदरणीया कल्पना भट्ट जी. दिल से आभार

Comment by राज़ नवादवी on October 6, 2016 at 12:15pm

शुक्रिया बृजेश भाई, दिल से आभार

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 5, 2016 at 8:16pm

बेहद खूबसूरत ग़ज़ल हुई हार्दिक बधाई

Comment by Samar kabeer on October 5, 2016 at 5:30pm
जनाब राज़ साहिब आदाब,पहली बार आपकी ग़ज़ल से रूबरू हुआ हूँ ।
उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद कुबुल फरमाएं ।
दूसरे शेर में आपने 'ज़िल्लत-ओ-लाचारियां,मिला कर लिख दिया है,इसी तरह छटे शैर में,,उल्फ़ते नाज़ मिला कर लिख दिया है,देखिएगा।
आपने ग़ज़ल पर अरकान नहीं लिखे जो मंच का नियम है
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 5, 2016 at 4:58pm

बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय | हार्दिक बधाई |


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Comment by शिज्जु "शकूर" on October 5, 2016 at 4:08pm

बहुत बढ़िया जनाब राज नवादवी जी बधाई, रदीफ जातीं नहीं लिखा है आपने शायद वो जाती नहीं होना चाहिए

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