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एक ग़ज़ल

बह्र 1222 1222 1222 1222


तेरी बस याद आने से सभी दुःख-दर्द टलतेे हैं।
तेरे ही नाम पे जीवन युँही हम काट चलते हैं।

गमों का दौर है आया नहीं सुख अब दिखाई दे
इसी में डूब कर अबतो सभी दिन-रात ढलते हैं।

यहाँ जो भी मुकम्मल है हिफाज़त को जमाने की
उसी के जह्न में देखो गलत अरमान पलते हैं।

कभी सोचा नहीं जिसने हो जाए अम्न ही कायम
लिए उम्मीद फिर ऐसी उसी के पास चलते हैं।

अदाकारी में जो माहिर समझ में वे नहीं आते
कभी तोला कभी माशा बहुत जल्दी बदलते हैं।

जिन्होनें बे रहम बनकर हमें बीमार कर डाला
बनें नादाँ हमारी वो इयादत को मचलते हैं।

खुदी के काम अच्छे हों यही इक सोच हो राणा
गलत जो काम करते हैं जमाने को वे छलते हैं।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on September 27, 2016 at 11:58am
आदरणीय सुरेश कुमार भाई साहब प्रयास की सराहना के लिए तहे दिल शुक्रिया।सादर
Comment by Samar kabeer on September 27, 2016 at 10:28am
ईता का दोष उसे कहते हैं,जब मतले के दोनों मिसरों में क़ाफ़िया समान हो,मिसाल के तौर पर ग़ालिब का मतला देखिये;-
"बस कि मुश्किल है हर इक काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना"
मतले के दोनों मिसरों में"सां" आरहा है
दाग़ साहिब का मतला देखिये:-
"ख़ातिर से या लिहाज़ से में मान तो गया
झूटी क़सम से आपका ईमान तो गया"
यहां भी मतले के दोनों मिसरों में"मान"आ रहा है,इसे ईताए जली का दोष कहते हैं,उम्मीद है आप समझ गए होंगे ।
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 27, 2016 at 10:23am
आदरणीय सतविंदर भाई जी सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई प्रेषित है । सादर ।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on September 27, 2016 at 7:03am
आदरणीय समर कबीर जी सादर नमन।आपने इस कोशिश पर शिरकत करके हौंसलाफ़ज़ाई के साथ-साथ मार्गदर्शन किया ,इसके लिए मैं आपका तहे दिल शुक्रगुज़ार हूँ।ईता के दोष के बारे में मैं उलझन में था इसी लिए मैंने इसको संशोधित नहीं किया था।क्योंकि छ्न्द में समांत और ग़ज़ल में काफिये में जो फर्क समझ पाया था उस अनुसार सभी सानी मिसरों में 'ते' ही काफिया लिया है।और मतले में भी ते काफिया ही साफ़ नज़र आ रहा है।आदरणीय समर साहब अब ये ईता का ऐब क्या होता है इसके बारे में थोड़ा जानकारी यहीं पर साँझा करने की कृपा हो जाए तो कइयों को इसका लाभ मिले।आपसे करबद्ध निवेदन हैं।उम्मीद करता हूँ आप मेरे निवेदन को स्वीकार कर कृतार्थ करेंगे।आप द्वारा दिए सुझाव के अनुसार परिमार्जन का निवेदन करूँगा।सादर
Comment by Samar kabeer on September 26, 2016 at 11:19pm
जनाब सतविंदर कुमार 'राणा'साहिब आदाब,,ग़ज़ल उम्दा हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
मतले के ऊला मिसरे में'नाम'शब्द की जगह अगर"ग़म"शब्द रखेंगे तो मिसरा प्रभाव शाली भी होगा और लय भी दुरुस्त हो जायेगी,तीसरे शैर में सही शब्द है "ज़ह्न"'इसी तरह पांचवें शैर में'मासा'को "माशा" कर लें ।
यहां में जनाब शिज्जु शकूर साहिब को बताना चाहूंगा कि मतला ईता के दोष से बरी है, यहां रदीफ़ है 'ते'और क़ाफ़िया एक अक्षरी है यानी 'ढ''ल'ब'वग़ैरा इस हिसाब से ये दोष साबित नहीं होता,देखियेग ।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on September 26, 2016 at 9:45pm
आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी प्रयास पर शिरकत कर हौंसलाफ़ज़ाई एवं मार्गदर्शन के लिए सादर आभार।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on September 26, 2016 at 9:42pm
आदरणीय शिज्जु शकूर सर सादर नमन।आपने मेरे इस प्रयास पर शिरकत करके मेरे लिए एक नई जानकारी को साँझा किया,मैं तहेदिल शुक्रगुजार हूँ।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 26, 2016 at 3:57pm
पहले पढ़ते व अंत में बनते के प्रयोग के अलावा मोहतरम जनाब शिज्जु शकूर साहब की टिप्पणी पर ग़ौर फ़रमाइयेगा। बढ़िया भाव अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई आपको आदरणीय सतविंदर कुमार राणा जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 26, 2016 at 3:30pm

आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी आपकी ग़ज़ल ईत दोष नुमायाँ है, पढ़ते चलते हमकाफिया नहीं हो सकते

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