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माता मैं ना जाऊँगा

कितने कष्ट सहे हैं तूने , कैसे मुझे पढ़ाया है,

तुझे छोड़कर घर से बाहर, मैंने कदम बढाया है |

अनचाहे ही माता तुझको , मैंने आज रुलाया है

भाग्य विधाता ने भी देखो, कैसा खेल रचाया है ||

 

 

रुक जाता मैं माता क्षणमें, बस कहने की देरी थी,

जाऊँ मैं परदेस मगर माँ, ये जिद भी तो तेरी थी |

देवों को नित पूजा तूने , माला भी नित फेरी थी,

तुझको छोड़ कहीं जाऊँ मैं, ये ईच्छा कब मेरी थी ||

 

 

दमकुंगा बन कुंदन लेकिन, काम न तेरे आऊँगा,

अपने चरणों में रहने दे , तेरे ही गुण गाऊँगा |

भेज न मुझको दूर कहीं तू, माता मैं ना जाऊँगा,

दूर गया तो कैसे तुझ सी, माता फिर मैं पाऊँगा ||

 

मौलिक/अप्रकाशित.

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Comment

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Comment by Ravi Shukla on September 19, 2016 at 9:52pm
आदरणीय अशोक जी बहुत ही बढ़िया छंद लिखा है आपने माँ को संबोधित करते हुए हार्दिक बधाई स्वीकार करें । शिल्प के अनुसार ताटंक लगा है हमें सादर ।
Comment by Ashok Kumar Raktale on September 19, 2016 at 8:19pm

आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, प्रस्तुति के भाव आप तक पहुँचे मेरा रचनाकर्म सार्थक हुआ. आपका हृदयातल से आभार. सादर.

Comment by Samar kabeer on September 19, 2016 at 4:42pm
जनाब अशोक कुमार रक्ताले जी आदाब,वाह वाह बहुत ख़ूब दिल हिला दिया आपकी रचना ने,मुझे अपनी माँ की याद आगई,बेहद भावपूर्ण प्रस्तुति के लिये दिल की गहराइयों से बधाई स्वीकार करें ।

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