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आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै (ग़ज़ल)

बह्र : २१२ १२२२ २१२ १२२२

 

आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै

मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै

 

फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर

आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै

 

दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं

द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै

 

स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को

प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै

 

आग प्यार की बुझने लग गई हो गर ‘सज्जन’

फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा दीजै

--------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 19, 2016 at 12:08am

आदरणीय धर्मेन्द्र जी, आपकी कई ग़ज़लें होती हैं जिन्हें भाव के स्तर पर पढ़ते हुए पाठक चाहे तो उसकी पंक्तियों को जी सकता है. यह ग़ज़ल भी कुछ ऐसी ही ग़ज़ल है. दिल से मुबारकबाद कुबूल करें, आदरणीय. 

यह अवश्य है कि बन्द कर के कमरे को.. में कर के जैसा प्रयोग ठीक नहीं है. यह तो आप भी जानते हैं. भले ही लोग ऐसा बोलते हैं. इसे बन्द कर दें पल्ले को..  किया जा सकता है. कोठरी और कमरा साथ-साथ कहना उचित होगा क्या ? या, आप जो उचित समझें. 

दूसरे, आखिरी शेर के उला में शिकस्ते नार’वा का दोष है, आदरणीय. कृपया देख लें.

सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 17, 2016 at 8:26pm

aa0आ० पहले कोठरी फिर कमरा , क्या माजरा है . गजल हेतु मुबारकवाद .

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 17, 2016 at 9:47am

शुक्रिया कल्पना जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 17, 2016 at 9:47am

तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीय समर साहब। आप ठीक कह रहे  हैं इस बह्र में २१२ १२२२ के बाद ब्रेक होना आवश्यक है जो पाँचवें शे’र के उला मिसरे में नहीं हो रहा है। त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 17, 2016 at 8:52am
अच्छी ग़ज़ल। हार्दिक बधाई आदरणीय।
Comment by Samar kabeer on August 16, 2016 at 10:57pm
जनाब धर्मेंद्र कुमार सिंह जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
पाँचवे शैर का ऊला मिसरा लय से भटक रहा है,देखियेगा ।

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