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देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम (ग़ज़ल)

बह्र : 22 22 22 22 22 22

 

तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम

देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम

 

दिल केले सा ख़ुद ही घायल हो जाता है

शब्दों से सीने पर चोट बनाते हैं हम

 

सिक्का यदि इंकार करे अपनी कीमत से

झूठे किस्से गढ़कर खोट बनाते हैं हम

 

नदी बहा देते हैं पहले तो पापों की

फिर पीले कागज की बोट बनाते हैं हम

 

पाँच वर्ष तक हमीं कोसते हैं सत्ता को

फिर चुनाव में ख़ुद को वोट बनाते हैं हम

 

शुद्ध नहीं, भाषा को गन्दा कर देते हैं

टाई को जब कंठलँगोट बनाते हैं हम

-----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 16, 2016 at 9:17pm

तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीय समर साहब। चोट लगाने के सम्बन्ध में आपकी बात ठीक है।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 16, 2016 at 9:16pm

शुक्रिया आदरणीय गिरिराज जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 16, 2016 at 9:16pm

शुक्रिया आदरणीय महाजन जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 16, 2016 at 9:16pm

शुक्रिया आदरणीय विजय जी

Comment by Samar kabeer on August 12, 2016 at 2:06pm
जनाब धर्मेंद्र कुमार जी आदाब,बढ़िया ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
दूसरे शेर के सानी मिसरे में,"शब्दों से सीने पर चोट बनाते हैं हम"
मुहतरम चोट लगाई जाती है, बनाई नहीं जाती,देखिएगा ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 11, 2016 at 12:52pm

आदरनीय धर्मेन्द्र भाई , खूबसूरत मतला और गज़ल के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Harash Mahajan on August 10, 2016 at 3:38pm

वाह आ० धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी !! बहुत खूब !!
मतला खूब रहा ....

"तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम

देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम"

दाद वसूल पाइयेगा !!

सादर !1

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 10, 2016 at 11:06am
पाँच वर्ष तक हमीं कोसते हैं सत्ता को
फिर चुनाव में ख़ुद को वोट बनाते हैं हम।
बात तो बहुत गहरी है पर लाचारी भी उतनी ही गहरी है।
आदरणीय धर्मेंद्र कुमार सिंह जी , सम्पूर्ण प्रस्तुति हेतु बधाई , सादर।

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