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तम से लड़ी है जिंदगी

2122  2122  2122  212

मौत है निष्ठूर निर्मम तो कड़ी है जिंदगी

जो ख़ुशी ही बाँटती हो तो भली है जिंदगी

 

लोग जीने के लिए हर रोज मरते जा रहे

ये सही है तो कहो क्या फिर यही है जिंदगी

 

दो निवालों के लिए दिनभर तपाया है बदन

या कि मानव व्यर्थ चाहत में तपी है जिंदगी  

 

झूठ माया मोह रिश्ते सब सही लगते यहाँ

जाने कैसे चक्रव्यूहों में फँसी है जिंदगी

 

काठ का पलना कहीं तो खुद कहीं पर काठ है

है हँसी कोमल कहीं आँसू भरी है जिंदगी

 

चाँद भी रातों को रोशन कर चुका है तो कहो

किन उजालों के लिए तम से लड़ी है जिंदगी

 

आसमां के पार भी इक आसमां तैयार है

ख्वाब बुन लो तो चलो कहती रही है जिंदगी.

 

मौलिक/अप्रकाशित.

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Comment by Ashok Kumar Raktale on July 12, 2016 at 7:53pm

आदरणीय अजय कुमार शर्मा साहब आपको गजल पसंद आयी जानकर मुझे प्रसन्नता हुई. सादर आभार.

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 12, 2016 at 7:52pm

आदरनीय गिरिराज भंडारी साहब सादर, आपको गजल के अशआर अच्छे लगे मेरा रचना श्रम सार्थक हुआ. हार्दिक आभार. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 12, 2016 at 7:51pm

आदरणीय श्री सुनील जी सादर, प्रस्तुत गजल पर उत्साहवर्धन के लिए आत्मीय आभार. सादर.

Comment by Ajay Kumar Sharma on July 12, 2016 at 11:35am
Raktale Saab vakai behtareen ghajal . badhai ho

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 12, 2016 at 9:55am

आदरनीय अशुक भाई , ज़िन्दगी की सच्छाइयाँ बयान करती आपकी गज़ल बहुत अच्छी लगी , दिल से बधाइयाँ आपको हरेक शे र के लिये ।

Comment by shree suneel on July 11, 2016 at 9:27pm
आसमां के पार भी इक आसमां तैयार है
ख्वाब बुन लो तो चलो कहती रही है जिंदगी... बहुत बढि़या..
अच्छे-अच्छे शे'र कहे हैं आदरणीय अशोक सर जी. हार्दिक बधाई आपको. सादर.
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 11, 2016 at 1:34pm

आदरणीय रामबली गुप्ता साहब सादर, प्रस्तुत गजल पर उतासाह्वर्धन के लिए आपका दिल से आभार. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 11, 2016 at 1:32pm

 आदरणीय महेंद्र कुमार साहब. बिलकुल स्पष्ट हुआ. हार्दिक आभार आपका इस बारीकी से परिचित करवाने के लिए. सादर.

Comment by Mahendra Kumar on July 11, 2016 at 10:02am
आदरणीय अशोक सर, सुझाव का मान रखने के लिए हार्दिक आभार!

//लोग जीने के लिए हर रोज मरते जा रहे, ये सही है तो कहो क्या अब यही है जिंदगी// इस शेर के सानी में 'अब' के प्रयोग से यह निकल कर आ रहा है कि उला में जिस बात का ज़िक्र किया जा रहा है वह पहले नहीं होती रही होगी लेकिन अब हो रही है। जब हम उला को देखते हैं तो उसमें मनुष्यों को जीने के लिए मरने की बात सामने आ रही है अर्थात् सर्वाइवल की। अब सानी के अनुसार (अब के प्रयोग के कारण) यह चीज पहले नहीं होनी चाहिए किन्तु मानव के इतिहास को देखें तो हमें शुरू से ही जीने की जद्दोजहद दिखाई देती है। इसलिए अब का प्रयोग मेरे हिसाब से उचित नहीं है। दूसरी बात, यदि किसी तरह इसका सम्बन्ध इसके पहले वाले शेर से होता अर्थात् मतले में कोई व्यक्ति यह कह रहा होता कि ज़िन्दगी खुशनुमा और हसीन है तो अगले शेर में उसकी बात का जवाब देते हुए 'अब' का प्रयोग किया जा सकता था किन्तु मुझे नहीं लगता कि मतले में ऐसी कोई बात कही जा रही है। इसलिए मैंने आपको उस मिसरे में संशोधन का सुझाव दिया था। सादर!
Comment by रामबली गुप्ता on July 11, 2016 at 8:18am
आद0 अशोक जी
आपकी गज़ल अपने आप में एक बेहतरीन और हृदयस्पर्शी प्रस्तुति है। सारे कथ्य उत्तम और संदेशप्रद विचारों को समाहित किये हुए हैं। हृदय से बधाई स्वीकार करें।

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