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२२१२ २२१२ २२

 

हमने यहीं पर ये चलन देखा

हर गैर में इक अपनापन देखा

 

देखी नुमाइश जिस्म की फिरभी

जूतों से नर का आकलन देखा

 

हर फूल ने खुश्बू गजब पायी

महका हुआ सारा  चमन देखा

 

लिक्खा मनाही था मगर हमने

हर फूल छूकर आदतन देखा

 

उस दम ठगे से रह गए हम यूँ  

फूलों को भँवरों में मगन देखा

 

होती है रुपियों से खनक कैसे

हमने भी रुक-रुक के वो फन देखा

 

रोशन चिरागों के तले देखे  

गलता हुआ बेबस बदन देखा

 

मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on July 4, 2016 at 11:35pm

आदरणीया राहिला जी सादर, गजल पर मेरा प्रयास आपको अच्छा लगा मेरा रचनाकर्म सफल हुआ. सादर आभार.

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 4, 2016 at 11:33pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब आपसे मिली सराहने से प्रस्तुति को संबल मिला. सादर आभार.

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 4, 2016 at 11:32pm

प्रस्तुत गजल पर उत्साहवर्धन के लिए दिल से आभार आदरनीय रवि शुक्ला साहब. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 4, 2016 at 11:32pm

गजल को सराहने के लिए बहुत-बहुत आभार आदरणीय जयनित कुमार मेहता जी. सादर.

Comment by Rahila on July 4, 2016 at 3:25pm
"देखी नुमाइश जिस्म की फिरभी
जूतों से नर का आकलन देखा" क्या खूब अंदाज से ये शेर लिखा आदरणीय सर जी!बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही ।बहुत बधाई सादर।

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Comment by गिरिराज भंडारी on July 4, 2016 at 3:16pm

देखी नुमाइश जिस्म की फिरभी

जूतों से नर का आकलन देखा    -- क्या बात है , आ. अशोक भाई , मेरे दिल की बात कह दी आपने । गज़ल भी खूब कही है , हार्दिक बधाई आपको ।

Comment by Ravi Shukla on July 4, 2016 at 1:55pm

आदरणीय अशोक जी, अच्छी गजल कही आपने बधाइ स्‍चीकार करें । 

Comment by जयनित कुमार मेहता on July 3, 2016 at 9:46pm
आदरणीय अशोक जी, बहुत अच्छी लगी आपकी ग़ज़ल। खूब बधाइयां आपको।
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 3, 2016 at 3:03pm

भाई शिज्जु 'शकूर' जी सादर, आप से तारीफ़ का संबल मिला. प्रस्तुति सफल हुई. सादर आभार.

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 3, 2016 at 3:02pm

आदरणीय महेंद्र कुमार जी सादर प्रस्तुत गजल पर उत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत आभार. आप मतले की बात कर रहे हैं मगर भाई यहाँ तो सब अपने ही हैं. सादर.

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