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ग़ज़ल-"नूर-ये ताबीज़ मुझ को फला देर से.

१२२/१२२/१२२/१२ 
.
कोई राज़ मुझ पर खुला देर से,
वो आँसू वहीँ था,, बहा देर से.
.

चिता की हुई राख़ ठंडी मगर,
सुलगता हुआ दिल बुझा देर से.
.

मैं दुनिया से लड़ने को तैयार था,
मगर ..ख़त तुम्हारा मिला देर से.  
.

तेरा नाम धडकन पे गुदवा लिया,
ये ताबीज़ मुझ को फला देर से.
.

हमारी सिफ़ारिश फ़रिश्तों ने की,
मगर आसमां ही झुका देर से.
.

अजब सी नमी लिपटी हर्फ़ों से थी,
वो ख़त तो जला पर जला देर से.
.

कई खेत प्यासे तड़पते रहे,
मिला बादलों को पता देर से.
.

भँवर, कश्तियाँ लीलता ही गया,
मगर वाँ भी पहुँचा.. ख़ुदा देर से. 
.

तू इंसान बेशक़ है आलातरीन,
तू पहचाना लेकिन गया देर से.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2016 at 11:33pm

आदरणीय नीलेश जी, आपकी यह ग़ज़ल पहले से ही परचम के साथ है. मैं तो भावमुग्ध हूँ. 

लेकिन ! 

तेरा नाम धडकन पे गुदवा लिया, 
ये ताबीज़ मुझ को फला देर से. .. इस शेर में, भाईजी, तार्किकता का लोचा लग रहा है हमें. गोदने काम तो होता है हार्डवेयर पर. जबकि धड़कन है सॉफ़्टवेयर ! सो उला तो कुछ यों होना श्रेयस्कर होता - तेरा नाम दिल पे ही गुदवा लिया
कुछ गड़बड़ लगे तो बताइयेगा. 

बाकी के लिए ज़िन्दाबाद ! 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 30, 2016 at 9:10pm

शुक्रिया 

Comment by जयनित कुमार मेहता on April 30, 2016 at 8:38pm
वाह आ. नीलेश जी! बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल बन पड़ी है।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 30, 2016 at 9:34am

शुक्रिया आ. रवि सर....
आख़िरी शेर किसी और के लिए कहा गया है ...मक्ता अभी बाक़ी है--
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 30, 2016 at 9:33am

शुक्रिया आ. धर्मेन्द्र जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 30, 2016 at 9:33am

शुक्रिया आ. नादिर खान साहब 

Comment by Ravi Shukla on April 28, 2016 at 11:58am

आदरणीय नीलेश जी बहुत सुन्‍दर गजल से नवाजा है मंच को आपने शेर दर शेर दाद और मुबारक बाद कुबूल करें । आखिरी शेेर में तखल्‍लुस का इस्‍तेमाल करते तो और अच्‍छा लगता । सादर । 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2016 at 10:39pm

शानदार ग़ज़ल हुई है आदरणीय नीलेश जी, दाद कुबूल करें।

Comment by नादिर ख़ान on April 27, 2016 at 12:42pm

मैं दुनिया से लड़ने को तैयार था,

मगर ..ख़त तुम्हारा मिला देर से.

तेरा नाम धडकन पे गुदवा लिया,

ये ताबीज़ मुझ को फला देर से.

अजब सी नमी लिपटी हर्फ़ों से थी,

वो ख़त तो जला पर जला देर से.

आदरणीय नीलेश जी बहुत खूबसूरत अशआर हुए हैं, बहुत मुबारकबाद आपको 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 27, 2016 at 6:02am

शुक्रिया आ. दिनेश जी 

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