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गोली (लघुकथा)राहिला

उसके अब्बा को खानदान में ही बेटी ब्याहनें की जाने कैसी सनक सवार हुई,कि अपने भतीजे से शादी के फरमान की गोली मेरे सीने में दागकर, मेरी और शब्बो की मुहब्बत का जनाज़ा निकाल दिया ।इसके बाद मैंने शहर ही छोड़ दिया और पूरे तीन साल बाद आज जब बस अड्डे पर उतरा तो उसे पूरे साजो सामान और एक छोटे से बच्चे के साथ सामने खड़ा पाकर यूं लगा जैसे किसी ने फिर दिल पर गोली दाग दी हो।मैं लड़खड़ा सा गया और जाने कब, कैसे उसके पास पहुँच गया पता नहीं ।शायद वो मेरी कैफियत समझ गई थी । तभी उसका शौहर रिक्शा लेकर आ पहुंचा । मैं कुछ कहता इससे पहले वो अपने शौहर से बोली -"रज्जाक! ये हमारे पड़ोसी जलील मियाँ!,और बेटा बंटी! मामू को सलाम करो जल्दी से "
ठाँय...पास से गुजर रही बारात में किसी कम्बख्त ने गोली छोड़ी ।
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by नयना(आरती)कानिटकर on March 8, 2016 at 8:42pm

 वाह रहिला जी रिश्ते के बदलते रूप पर सुंदर लघुकथा. बधाई अपको

Comment by Sushil Sarna on March 8, 2016 at 5:24pm

वाह आदरणीया राहिला जी कैसे हालात रिश्तों का रूप बदल देते हैं , आपकी इस लघु कथा इसका ज्वलंत उदहारण है। लघुकथा का प्रवाह अपनी पूरी कसावट लिए हुए है। इस कसक भरी लघु कथा की प्रस्तुति पर हार्दिक मुबारक़बाद । 

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