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तो कुछ देखूँ- ग़ज़ल (पंकज)

1222 1222 1222 1222

तुझे मैं चित्त से अपने मिटा पाऊँ तो कुछ देखूँ।
तेरे अवधान को मन से घटा पाऊँ तो कुछ देखूँ।।

हे प्रियतम रूप रस तेरा मनस पर इस कदर हावी।
ये दृग रस पान से तेरे हटा पाऊँ तो कुछ देखूँ।।

ये पर्वत पेड़ ये नदिया, ये शीतल सी हवाएँ भी।
अलग तुमसे हैं ये खुद को बता पाऊँ तो कुछ देखूँ।।

कि मन्दिर चर्च मस्ज़िद और गुरुद्वारे बहुत हैं पर।
तेरे छवि धाम से मन को बुला पाऊँ तो कुछ देखूँ।।

ये पंकज खिल भी सकता है हाँ जी दुनियावी पोखर में।
मगर अन्तस् सरोवर में खिला पाऊँ तो कुछ देखूँ।।


मौलिक एवम् अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 24, 2015 at 12:21pm
आदरणीय गिरिराज सर सादर प्रणाम और सुझावों के लिए आभार

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Comment by गिरिराज भंडारी on December 24, 2015 at 11:28am

आदरणीय पंकज भाई , लाजवाब ग़ज़ल कही है , दिली बधाइयाँ  स्वीकार करें । पर एक भारी भूल हो गई है --
तुझे मैं चित्त से अपने मिटा पाऊँ तो कुछ देखूँ।
तेरे अवधान को मन से घटा पाऊँ तो कुछ देखूँ।।     -- इस मतले के अनुसार आपका काफिया  - दोष पूर्ण है
1-  मिटा और घटा मे  टा के पहले का स्वर भी  मिलना चाहिये था  ,  जैसे  मिटा और पिटा या घटा और कटा
2-  दूसरी बात अगर ये स्वर मे ल कर भी लें तो  , आपका काफिया या तो -- इटा या अटा तय होगा । और इस काफिये के अनुसार आपके ये तीन शे र     दोष पूऋन हो जायें गे -
ये पर्वत पेड़ ये नदिया, ये शीतल सी हवाएँ भी।
अलग तुमसे हैं ये खुद को बता पाऊँ तो कुछ देखूँ।।   ---   आ काफिया

कि मन्दिर चर्च मस्ज़िद और गुरुद्वारे बहुत हैं पर।
तेरे छवि धाम से मन को बुला पाऊँ तो कुछ देखूँ।।   -- आ काफिया

ये पंकज खिल भी सकता है हाँ जी दुनियावी पोखर में।
मगर अन्तस् सरोवर में खिला पाऊँ तो कुछ देखूँ।। ---   आ काफिया

अतः  आपको मतले पर पुनः विचार करना चाहिये  और मतले को भी  आ काफिया पर  कहने का प्रयास कर लेना चाहिये ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 24, 2015 at 9:22am
आदरणीय मिथिलेश सर सादर प्रणाम और हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 24, 2015 at 5:06am

आदरणीय पंकज जी शानदार ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 23, 2015 at 3:25pm
आदरणीय रवि शुक्ल सर सादर प्रणाम।
सुझाव के अनुरूप संशोधन किया जाएगा।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 23, 2015 at 12:50pm
आदरणीय लक्ष्मण सर सादर अभिवादन स्वीकारें
Comment by Ravi Shukla on December 23, 2015 at 12:32pm

आदरणीय पंकज जी सुन्‍दर ग़ज़ल के लिये बधाई कुबूल करें  आखिरी शेर के उला को अगर ऐसे करे तो शायद प्रवाह कुछ निखर सकता है   ये पंकज खिल भी सकता है इसी दुनियावी पोखर में ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 23, 2015 at 11:20am

बहुत खूब ...पंकज भाई 

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