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कुछ तो कहो, कुछ जवाब दो -- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

221—2121—1221—212

 

जुगनू से मांगने को चला है कि ताब दो

बेचैन हो गया है बशर  फिर नकाब दो

 

इस तिश्नगी से हम न कभी मुतमईन थे

जामिन से कब कहा था कि गोया सराब दो

 

किसने बदन से आपके चमड़ी उतार ली

खामोश क्यूं हो, कुछ तो कहो, कुछ जवाब दो?

 

दैरो-हरम में आ गए हो दिल निकाल के

अब ये तो मत कहो कि मुझे भी शराब दो

 

माना कि बेजुबान है, नादाँ, गरीब है

इंसान का उसे भी कभी तो खिताब दो

 

तुम भी हकीक़तों की हिमायत करों मगर

जीने को सब्ज बाग़ के इफरात ख्व़ाब दो    

 

इस जंग की फतह को जरा-सा परे रखों

कुल खर्च आदमी जो हुए है,  हिसाब दो

 

बस दहशतों के जिक्र है हर एक वर्क पर

चैनो-सुकूं की एक तो सच्ची किताब दो

 

 

------------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 24, 2015 at 12:31am

इस तिश्नगी से हम तो कभी थे न मुतमइन
जामिन से कब कहा था कि आबे-सराब दो

तुम भी हकीक़तों की हिमायत करों मगर
जीने को सब्ज बाग़ के तादादे-ख्व़ाब दो / गमख्वार ख्व़ाब दो / बेहद्द ख्व़ाब दो/ दो चार ख्व़ाब दो/ 

बस दहशतों के जिक्र वरक़-दर-वरक़ मिले 
चैनो-सुकूं की एक तो सच्ची किताब दो

आदरणीय समर कबीर जी आपके मार्गदर्शन अनुसार कुछ संशोधन किये है. पुनः आपका मार्गदर्शन निवेदित है. सादर 

Comment by Samar kabeer on August 23, 2015 at 11:44pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,

जुगनू से मांगने को चला है कि ताब दो
बेचैन हो गया है बशर फिर नकाब दो

:- मतला आपका ठीक है,पसंद आया ।

इस तिश्नगी से हम न कभी मुतमईन थे
जामिन से कब कहा था कि गोया सराब दो

:- इस शैर में 'मुतमईन' ग़लत है,सही शब्द है "मुतमइन",सानी मिसरे में 'गोया' शब्द भर्ती का है ,और ये फ़ारसी भाषा का है,इसका अर्थ होता है 1)बोलने वाला, 2)मानिंद,मिस्ल,ग़ालेबन, 3) फ़र्ज़ करो (मान लो,तस्लीम कर लो),अब आप देख लीजिये इस शैर को किस तरह दुरुस्त करना है ।

किसने बदन से आपके चमड़ी उतार ली
खामोश क्यूं हो, कुछ तो कहो, कुछ जवाब दो?

:- ये शैर बहुत अच्छा है ।

दैरो-हरम में आ गए हो दिल निकाल के
अब ये तो मत कहो कि मुझे भी शराब दो

:- ये शैर मेरी समझ में नहीं आय ,इसमें आप क्या कहना चाहते हैं ?

माना कि बेजुबान है, नादाँ, गरीब है
इंसान का उसे भी कभी तो खिताब दो

:- ये शैर भी लायक़-ए-दाद है ।

तुम भी हकीक़तों की हिमायत करों मगर
जीने को सब्ज बाग़ के इफरात ख्व़ाब दो

:- इस शैर के सानी मिसरे में 'इफ़रात' शब्द के साथ 'ब' लगाना ज़रूरी है "ब इफ़रात' जैसे 'ब ख़ुदा', 'ब मुलाहिज़ा','इफ़रात' का अर्थ होता है
'ज़्यादती',और 'ब इफ़रात' का अर्थ होता है 'बहुत ज़्यादा',इस लिहाज़ से अब आप इस मिसरे को देख लीजियेगा ।


इस जंग की फतह को जरा-सा परे रखों
कुल खर्च आदमी जो हुए है, हिसाब दो

:- बहुत अच्छे अंदाज़ से इस शैर को कहा है आपने,मज़ा आ गया ।

बस दहशतों के जिक्र है हर एक वर्क पर
चैनो-सुकूं की एक तो सच्ची किताब दो

:- इस शैर के ऊला मिसरे में 'वर्क़' ग़लत है,सही शब्द है "वरक़",देख लीजियेगा ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 23, 2015 at 10:58pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, ग़ज़ल आपको पसंद आई, जानकार दिल झूम गया. सराहना  और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 23, 2015 at 10:57pm

आदरणीय हर्ष जी, आपकी मुहब्बतों का दिल से शुक्रिया ऐडा करता हूँ. आपकी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभारी हूँ. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 23, 2015 at 10:54pm

आदरणीया राजेश दीदी ग़ज़ल पर आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया मुग्ध कर देती है. आपकी बेशक वाली इस्लाह शानदार है. इस इस्लाह के लिए दिल से आभार नमन 

दीदी अपनी किसी भी ग़ज़ल में गोया शब्द का प्रयोग पहली बार किया है. बहुत से शायरों और नए अभ्यासियों को बहुत गोया गोया कहते देखा तो प्रयोग कर लिया. इस पर पुनर्विचार करता हूँ. 

आपकी दाद मिल जाती है तो लिखना सार्थक लगने लगता है. सराहना स्नेह मार्गदर्शन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 23, 2015 at 10:46pm

आदरणीय समर कबीर जी, आप कुछ न कहेंगे तो मेरा बहुत नुक्सान हो जाएगा. ये ग़ज़ल इस्लाह के लिए है. वो दो विचारधारा से सम्बंधित मामला है. यहाँ आपके मार्गदर्शन की प्रतीक्षा सदैव रहती है. आज भी है और अभी भी. करबद्ध निवेदन है कि मुझे इस्लाह और मुहब्बतों से महरूम न रखिये. सादर 

Comment by Samar kabeer on August 23, 2015 at 10:37pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,आपकी ग़ज़ल सुनी,अच्छी ग़ज़ल कही है आपने,एक दो शैरों पर कुछ कहने का मन था लेकिन तरही मुशायरे के अनुभव ने रोक दिया क्यूँकि बात फिर वहीं आ जाती कि प्रचलन में यही है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 23, 2015 at 10:34pm

वाह मिथिलेश भिया ,बहुत  अच्छी ग़ज़ल लिखी है सभी अशआर बढ़िया हुए 

माना कि बेजुबान है, नादाँ, गरीब है

इंसान का उसे भी कभी तो खिताब दो-----बहुत बढ़िया 

तुम भी हकीक़तों की हिमायत करों मगर----तुम भी की जगह बेशक करें तो कैसा रहेगा 

जीने को सब्ज बाग़ के इफरात ख्व़ाब दो    ----वाह्ह्ह 

 

 

इस जंग की फतह को जरा-सा परे रखों

कुल खर्च आदमी जो हुए है,  हिसाब दो

 

बस दहशतों के जिक्र है हर एक वर्क पर

चैनो-सुकूं की एक तो सच्ची किताब दो

 इन दोनों शेरों के लिए तो ढेरों बधाई 

भैया दुसरे शेर में वहाँ गोया शब्द के प्रयोग पर  कुछ संशय है ,खैर वो विद्वद्जन  की राय से मुझे भी स्पष्ट होगा 

फिलहाल दिल से बधाई लीजिये इस खूबसूरत ग़ज़ल पर |

Comment by Harash Mahajan on August 23, 2015 at 1:55pm
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आपकी ग़ज़ल पटल पर आते ही यूँ लगता है जैसे कोई नई चीज़ ज़रूर सीखने को मिलेगी । सबसे पहले तो ये ग़ज़ल आपने जिस बहर में आपने कही, इसको चुनना ।
दुसरे शेरों के अहसास ग़ज़ल में माला की तरह पिरो देते हैं । ग़ज़ल के सभी शेर एक से बढ़ के एक हसीन लेकिन जो दिल में उतार गया वो हासिल ए ग़ज़ल शेर ....
"इस जंग की फतह को ज़रा सा परे रखो,
कुल खर्च जो आदमी हुए हैं, हिसाब दो ।"
कितना जबरदस्त ख़याल आया है सर । इस पूरी बेहतरीन ग़ज़ल पर मेरी जानिब से ढेरों दाद वदूल पाइएगा ।साभार ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 23, 2015 at 11:02am

बेहतरीन  आ० मिथिलेश जी  गजलगोई में आपका जवाब नहीं .

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