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इस् लघुकथा पर जो प्रश्न आये वे सटीक और प्रासंगिक हैं. अभी एक लघुकथा पर जो कहा वह पुनः यहाँ भी कहूँगा, कि, अनावश्यक लघुकथाओं को एडल्ट न किया जाय.
इस संदर्भ में आदरणीया कान्तारायजी की लघुकथा के कथ्य की बात करूँगा. हालाँकि उस लघुकथा ’मक्खन वाले हाथ’ का प्रस्तुतीकरण अनगढ़ था लेकिन मनोवैज्ञानिक विन्दुओं को सहजता से उठाने का प्रयास हुआ है.
हमारे पास अभी बहुत से विन्दु और इंगित हैं जिनको शीर्षक बना कर लघुकथाएँ हो सकती हैं. समर्थवान केलिए कोई शीर्षक सहज होता है. हम समर्थवान होने का सतत अभ्यास करें.
समाज में व्याप्त विसंगतियों को अभिव्यक्त करती प्रभावकारी और सफल लघुकथा
हार्दिक बधाई आदरणीय वीरेंदर जी
प्रश्न बहुत सारे उठाये गए पर ये भी इसी समाज की एक सच्चाई है
आदरणीय डॉ गोपाल नारयण श्रीवास्तव जी / ओम प्रकाश क्षत्रिय जी / हरी प्रकाश दुबे जी / मनोज कुमार अहसास जी और अर्चना त्रिपाठी जी ..... आप सभी गुनीजनो का कथा को गंभीरता से अवलोकन करने और बहुमूल्य प्रतिक्रिया देने का दिल से आभारी हूँ .
आप लोगो ने कुछ प्रशन भी किये है जो कुछ हद तक सही भी है और स्वाभिक भी है ... इनके प्रति उत्तर मैं आप लोगो से कुछ बाते जरूर शेयर करना चाहूँगा ....
{ ये कथा एक ऐसे घर की है जिसमे बड़े भाई के कोई पुत्र नहीं है जो हवेली के वारिस होने की पहली शर्त है , मंझला भाई दुर्गाटन का शिकार हो जाता जो की निसंतान ही था .... उसी की पत्नी का घर में बड़े जेठ ने शोषण की शुरुआत की . ... पत्नी और पत्नी दोनों ने मिलकर इस अनर्थ के लिए मंजली जिठानी पर दबाब बनाया की, तुमाहरी गोद से मिली संतान हमारे नाम से हवेली की वारिस बनेगी और इसके साथ ही तुम्हारी "सभी" जरूरते पूरी होती रहेगी. और इसी में हमारे परिवार का मान समान भी बना रहेगा ... ...
और ये सब इसलिए किया गया क्यूंकि सबसे छोटे भाई के संतान या लड़का होने के बाद वही हवेली का वारिस न बन जाए .}
..... सम्भव है ये सब बाते कथा में सपष्ट न हो सकी हो जिसके लिए शायद मेरी रचना का लेखन कार्य ही दोषी है और इसके लिए मुझे खेद भी है.
और अंत में एक बात भाई मनोज कुमार जी से ...... आपने ये सही कहा की हमें ऐसी कथा लिखनी चाहिए जो समाज को प्रेरणा दे सके.... लेकिन इस समाज में बहुत सी बाते ऐसी भी होती है जिन्हें समाज तक पहुचाने का कार्य भी हम जैसे लोगो को ही करना चाहिय..... फिर भी अगर इस कथा से किसी को भावनाओं को ठेस पहुँची हो तो मैं क्षमा चाहूँगा ....
आदरणीय वीर भाईसाहब सुन्दर रचना है , पर कुछ प्रश्न जायज लगतें है , अगर मान भी लें की सबको लडकियां ही थी ! ऐसा हो सकता है साल भर की जगह कुछ महीने पहले कर दिया जाय ! सादर
वीर जी
इसमें एक बात समझ में नहीं आयी . माना वारिस मिलजाएगा पर बिधवा से -------?
वारिस चाहिए. जैसे भी मिले. अच्छी लघुकथा आदरणीय VIRENDER VEER MEHTA जी .
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