"खुदा का कहर तो खुदा का ही है पर ये सब तो हमने किया। टूटे हुए आशियाने, स्याह काले रंगों में बदलती हरियाली और उपजाऊ जमीन को बंजर करती बारूदी तबाही। आखिर दहशतगर्दी को ख़त्म करने के लिए क्या यही एक रास्ता था?" अपनी 'कमांडरशिप' में किये 'आपरेशन' के बाद इलाके को एक नज़र देखते हुए वो सोच रहा था।
इस वीरान धरती को देख, इस खेल में खुद की हिस्सेदारी के लिए, बतौर इनाम लगे तमगे भी अब उसे चुबने लगे थे। मन का बोझ जब खुद का भार सहने में नाकाम हो गया तो अश्को के रस्ते बह निकला। फलक की और देखता हुआ वो कह उठा। "ऐ मेरे मौला मुझे मुआफ़ करना, तेरी इस विरासत को तबाह करने का ख़तावार मैं ही हूँ।"
"नहीं मेरे अजीज! तूने तो अपने हिस्से का फ़र्ज़ अदा किया है।" फलक भी उसके अश्को को पोंछता हुआ बोल उठा। "शैतानी बुराई का ख़त्म करने के लिए अक्सर बहुत कुछ कुर्बान करना ही पड़ता है। और रही बात कुदरत की, तो इसका जवाब तो तेरे कदमो तले कुदरत ने खुद ही दे दिया है।"
उसने गीली आखों से नीचे देखा। बंजर तबाह जमीन पर एक ठूंठ से निकला हुआ नया कोमल पत्ता फिर से नए जीवन की घोषणा कर रहा था।
"मौलिक और अप्रकाशित"
'वीरेंदर वीर मेहता'
Comment
प्रकृति की मूल अवधारणा को शब्दों में स्थापित करती इस लघुकथा के लिए बधाई भाईजी.
बहुत सुंदर लघुकथा ,आदरणीय वीरेंदर जी
''बहुत कुछ खोना पड़ता है कभी कभी बुराई के खात्मे में'' बहुत सुन्दर लघुकथा हुयी है आ० वीरेन्द्र जी हार्दिक बधाई!
बहुत सुंदर लघुकथा ,आदरणीय मेहता जी. सच बुराई को ख़त्म करने के लिए बहुत कुछ दाव पर लगता है. बधाई स्वीकारें
वीरेंद्र जी
अच्छी सोच और अच्छी कथा .
बेहद शानदार अभ्व्यक्ति । बहुत कुछ खोना पड़ता है कभी कभी बुराई के खात्मे में । आप की रचनाएँ पढ़ने में एक अलग ही सुकून मिलता है । बहुत बहुत बधाई इस रचना लिए आदरणीय Veer Mehta जी ..
उत्साह बढाने के लिए तहे दिल से आभार आदरणीय डॉ विजय शंकर जी ..
प्रेरक , बधाई, आदरणीय वीरेंद्र जी.
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