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ग़ज़ल -नूर : ये दुआ है फ़क़त दुआ निकले

२१२२/१२१२/२२ (११२)

जब भी लफ़्ज़ों का काफ़िला निकले
ये दुआ है, फ़कत दुआ निकले.
.
कोई ऐसा भी फ़लसफ़ा निकले
ख़ामुशी का भी तर्जुमा निकले.
.
सुब’ह ने फिर से खोल ली आँखें  
देखिये आज क्या नया निकले.
.
हम कि मंज़िल जिसे समझते हैं  
क्या पता वो भी रास्ता निकले.
.
लुत्फ़ जीने का कुछ रहा ही नहीं
क्या हो गर मौत बे-मज़ा निकले?     
.
रोज़ चलता हूँ मैं, मेरी जानिब
रोज़ ख़ुद से ही फ़ासला निकले.
.
गर है कामिल^, मुजस्मासाज़^^मेरा ........... ^परफेक्ट ^^शिल्पी
ख़ामियाँ मुझ में क्यूँ भला निकले?
.
निलेश "नूर: 

Views: 813

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 19, 2015 at 8:54pm

शुक्रिया आ. हरिप्रकाश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 19, 2015 at 8:53pm

शुक्रिया आ मिथिलेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 19, 2015 at 8:53pm

शुक्रिया आ मनोज जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 19, 2015 at 8:52pm

शुक्रिया आ. नरेंद्र सिंह जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 19, 2015 at 8:52pm

शुक्रिया आ. समर कबीर साहब 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 19, 2015 at 8:52pm

शुक्रिया आ. शायम नारायण जी 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 19, 2015 at 3:58pm

लाजवाब नूर जी

रोज़ चलता हूँ मैं, मेरी जानिब
रोज़ ख़ुद से ही फ़ासला निकले.
.
गर है कामिल^, मुजस्मासाज़^^मेरा ...........
ख़ामियाँ मुझ में क्यूँ भला निकले?
.

Comment by Tanuja Upreti on May 19, 2015 at 10:07am

लुत्फ़ जीने का कुछ रहा ही नहीं 

क्या हो गर मौत बे-मज़ा निकले?      बहुत ही सुन्दर रचना है निलेश जी 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 19, 2015 at 9:44am

हम कि मंज़िल जिसे समझते हैं  
क्या पता वो भी रास्ता निकले.        वाह वाह..क्या कहने!

रोज़ चलता हूँ मैं, मेरी जानिब
रोज़ ख़ुद से ही फ़ासला निकले.               लाजवाब! लाजवाब!

बेहतरीन गज़ल पर ढेरों दाद हाजिर है आदरणीय!

Comment by Hari Prakash Dubey on May 18, 2015 at 11:07pm

आदरणीय  Nilesh Shevgaonkar जी  , बस  शानदार  और  बहुत  शानदार   ! सादर

सुब’ह ने फिर से खोल ली आँखें  
देखिये आज क्या नया निकले.
.
हम कि मंज़िल जिसे समझते हैं  
क्या पता वो भी रास्ता निकले.

लुत्फ़ जीने का कुछ रहा ही नहीं 
क्या हो गर मौत बे-मज़ा निकले?     

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