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तमाम मोती हैं सागर में मगर मुझको क्या
घिरा जो तम में मेरा घर तो सहर मुझको क्या
हमें वो हीन कहें दींन कहें या मुफलिस
बशर तमाम जुदा सब कि नजर मुझको क्या
बहार आयी चमन में है ये तो तुम देखो
खिजाँ नसीब है; मैं हूँ वो शजर, मुझको क्या
जो नंगे पाँव ही चलना है मुकद्दर मेरा
बिछे हों गुल या हो खारों की डगर मुझको क्या
मेरा नसीब तो फुटपाथ जमाने से रहे
नसीब उन को महल हैं ये अगर मुझको क्या
धुआं जो दिल में उठा उस को ग़ज़ल कहता हूँ
करेगी कितना किसी दिल पे असर मुझको क्या
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिये बधाई स्वीकारें ...सभी शेर उम्दा ....सादर
जो नंगे पाँव ही चलना है मुकद्दर मेरा
बिछे हों गुल या हो खारों की डगर मुझको क्या .... वाह! आदरणीय डा.आशुतोष जी. कमाल का शेर कहा आपने. दिली बधाई लीजिये
आदरणीय मिथिलेश जी ..आदरणीय हरिप्रकाश जी ....रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से धन्यवाद .सादर
धुआं जो दिल में उठा उस को ग़ज़ल कहता हूँ
करेगी कितना किसी दिल पे असर मुझको क्या.....आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी बहुत सुन्दर , आ.मिथिलेश भाई की बात ही दुहरा रहा हूँ ....आखिरी शेर ने तो दिल लूट लिया ! बधाई आपको ! सादर
आदरणीय आशुतोष जी बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल हुई है. इस मुकम्मल ग़ज़ल के लिए दिल से दाद हाज़िर है
आखिरी शेर ने तो दिल लूट लिया ----
धुआं जो दिल में उठा उस को ग़ज़ल कहता हूँ
करेगी कितना किसी दिल पे असर मुझको क्या
वाह वाह वाह
आदरणीय समर कबीर जी ..आपका स्नेह यूं ही मिलता रहे और आपकी प्रतिक्रियाओं से मैं अपनी कमियों में सतत सुधार कर सकूं ..सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय श्याम नारायण जी रचना आपको पसंद आयी मेरा प्रयास सार्थक हुआ ..उत्साहवर्धन के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर |
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