चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है
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याद मुझे वो अक्सर ही आ जाती है
चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है
आग चढ़ी वो दूध भरी काली मटकी
वो मिठास अब कहाँ कहीं मिल पाती है
वो कुतिया जो संग आती थी खेतों तक
उसके हिस्से की रोटी बच जाती है
छुपा छुपव्वल वाली वो गलियाँ सँकरीं
दिल की धड़कन , यादों से बढ़ जाती है
डंडा पचरंगा खेले जिस बरगद में
ख़्वाबों में उसकी डाली आ जाती है
शाला की मेरी कुर्सी वो टूटी सी
कलम पट्टियाँ ले कर मुझे बुलाती है
ज़िन्दा रखना गाँव सदा अपने अन्दर
खुश्बू अमराई की आ समझाती है
धुयें धूल से भरी सड़क से पूछूँगा
क्या गाँवों की पगडंडी तक जाती है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शिज्जु भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥
आदरणीय गिरिराज सर पुरअसर ग़ज़ल कही है आपने हर शेर लाजवाब है बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय समर कबीर भाई , आपकी सराहना ने मेरी ग़ज़ल मुकम्मल कर दी , आदरणीय, हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , आपकी सराहना ने मेरी मेहनत सफल कर दी ॥ हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ॥
आदरणीय कृष्णा भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभार ॥
आदरणीया प्रतिभा जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका शुक्रिया !!
आदरणीय गिरिराज जी, अच्छी ग़ज़ल हुई है। दाद कुबूल कीजिए
लाजव़ाब रचना आदरणीय!अभिनन्दन!
आदरणीय विजय भाई , ग़ज़ल की सरहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
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