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ग़ज़ल : रंगमंच ये सारा उसका, उसके ही तो है .... (मिथिलेश वामनकर)

22-22--22-22--22-22—2 

 

तुम बिन सूने-सूने लगते  जीवन-वीवन सब

साँसें-वाँसें, खुशबू-वुशबू, धड़कन-वड़कन सब

 

आज सियासत ने धोके से, अपने बाँटें है-

बस्ती-वस्ती, गलियाँ-वलियाँ, आँगन-वाँगन सब 

 

मन को सींचों, रूठे रहते बंजर धरती से-

बादल-वादल, बरखा-वरखा, सावन-वावन सब

 

कितनी जल्दी छिन जाते है पद से हटते ही  

कुर्सी-वुर्सी, टेबल-वेबल, आसन-वासन सब

 

तेरी चुप्पी में भी मुझसे बातें करते हैं-

पायल-वायल, बिंदिया-विंदियाँ, कंगन-वंगन सब

 

तुम आई जो मन मंदिर में, जी को भाए हैं-

पूजा-वूजा, श्रद्धा-व्रद्धा, दर्शन-वर्शन सब

 

रंग मुहब्बत का छाया तो हमने तोड़े है-

रिश्तें-विश्तें, कसमें-वसमें, बंधन-वंधन सब

 

यार मिला तो, छोटे लगते, कस्बे के आगे-

पेरिस-वेरिस, बर्लिन-वर्लिन, लन्दन-वन्दन सब

 

तेरी साँसों के बिन कितने सादे लगते हैं-

जूही-वूही, मोंगर-वोंगर, चन्दन-वन्दन सब

 

रंगमंच ये सारा उसका, उसके ही तो है-

नाटक-वाटक, परदे-वरदे, मंचन-वंचन सब 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 3, 2015 at 1:11pm
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 3, 2015 at 1:10pm
आदरणीय निर्मल भाई जी हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 3, 2015 at 1:09pm
आदरणीय दिनेश भाई जी राहत साहब की जमीं पर ये प्रयोग 1 अप्रैल को पोस्ट करना था जो व्यस्तता के चलते 2 अप्रैल को किया
आपको प्रयोग पर प्रयास पसंद आया हार्दिक आभार।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 3, 2015 at 12:19pm
बहुत खूब आ. मिथिलेश जी। आपका प्रयोग सफल है। दाद कुबूल कीजिए
Comment by Nirmal Nadeem on April 3, 2015 at 10:15am

Bahut achchaha prayog hai bhai waaah waaah bahut khooob.....

mazaa aa gya. kya kahne . mubarak ho.

Comment by दिनेश कुमार on April 3, 2015 at 5:57am
उसकी कत्थई आँखों में हैं जंतर-मंतर सब
चाक़ू-वाक़ू, छुरियाँ-वुरियाँ, ख़ंजर-वंजर सब.....

वाह वाह भाई मिथिलेश जी, सुन्दर प्रयोग किया है। बहुत खूब। ढेरों दाद।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 2, 2015 at 8:58pm
आदरणीय महर्षि भाई हार्दिक आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 2, 2015 at 8:58pm
आदरणीय श्याम जी हार्दिक आभार
Comment by maharshi tripathi on April 2, 2015 at 8:41pm

तेरी साँसों के बिन कितने सादे लगते हैं-

जूही-वूही, मोंगर-वोंगर, चन्दन-वन्दन सब

 

रंगमंच ये सारा उसका, उसके ही तो है-

नाटक-वाटक, परदे-वरदे, मंचन-वंचन सब ,,,,बहुत बहुत बधाई आ. मिथिलेश वामनकर  जी |

Comment by Shyam Mathpal on April 2, 2015 at 7:33pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी,

कुछ नये प्रयोगों के साथ बहुत ही सुंदर रचना . दिल से ढेरों बधाई.

कृपया ध्यान दे...

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