व्यथित है पतितपावनी
अपनी दशा पर आज
प्रश्न पूछती यही सबसे हजार बार
की है किसने दुर्गति ये
कौन है इसका जिम्मेदार ?
राजा, रंक हो या संत
दिया सबको समान अधिकार
सिंचित कर धरा को
भरा संपदा जिसने अपार
विष भर उसकी रगों में फिर
धकेला किसने उसे मृत्यु के द्वार ?
स्नान आचमन से जिसके देव प्रशन्न होते हैं
मुख में इक बूँद ले लोग
स्वर्ग गमन करते हैं
आँचल में उसी के शवों को छुपा
ढेरों मैल बहाया है
दामन पर उसके दाग ये किसने लगाया है ?
हरिहर प्यारी, ब्रह्मा की दुलारी
चलती थी जो मचलती, लहराती
पीड़ा देख उसकी अब
देवों का हृदय भी भर आया है
आखिर उसे इस हाल में किसने पहुँचाया है ?
दी है सद्गति जिसने, आज वह कराहती है
सुनो ना ! माँ गंगा तुम्हें पुकारती है,
माँ गंगा तुम्हें पुकारती है ||
मीना पाठक
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
प्रिय प्रतिभा जी बहुत बहुत आभार
बहुत बहुत आभार महर्षि जी .. कविता से उन्हें निजात नही मिलेगी पर हम सब के प्रयास से शायद कुछ हद तक उन्हें राहत मिल जाय ...
आदरणीय डा० गोपाल नारायण जी, रचना पर सराहना हेतु सादर आभार स्वीकारें
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति , बधाई आप को | सादर |
आदरणीया मीना जी बहुत सुंदर गीत लिखा है आपने बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिये
बहुत सुन्दर ,,,गंगा माँ की पीड़ा ,,काफी गहरी है ,,आपकी इस कविता से शायद उन्हें निजात मिले ,हार्दिक बधाई आ. Meena Pathak जी इस कविता हेतु |
आ० मीना जी
गंगा ई करूण दशा पर आपका प्रश्न स्वाभाविक एवं सामयिक है . सदर.
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