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इस जिस्म में अब पंख लगाना ही पड़ेगा

२२१२ २२११ २२१ १२२

अब हाले दिल ये उनको सुनाना ही पड़ेगा

लगता है अपने ओंठ हिलाना ही पड़ेगा

छत पे खड़े हैं आज वो ऊंचे मकान की 

इस जिस्म में अब पंख लगाना ही पड़ेगा 

लौटे हैं कितने रिंद उन्हें मान के पत्थर 

जल्वा- ग़ज़ल का उनको दिखाना ही पड़ेगा 

छुप छुप के देखें आह भरें होगा न हमसे  

नजरों के तीखे तीर चलाना ही पड़ेगा 

ग़ज़लों पे रखिये आप यकी आज भी अपनी 

जलता हुआ दिल ले उन्हें आना ही पड़ेगा 

जिस दौर में ओंठो पे यकी होता नहीं है 

उसमे जिगर भी चीर दिखाना ही पड़ेगा 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 26, 2015 at 7:02pm
अब हाले दिल ये उनको सुनाना ही पड़ेगा
लगता है अपने ओंठ हिलाना ही पड़ेगा

आदरणीय आशुतोष जी सुन्दर ग़ज़ल हेतु हार्दिक बधाई।
Comment by maharshi tripathi on February 26, 2015 at 5:02pm

जिस दौर में ओंठो पे यकी होता नहीं है 

उसमे जिगर भी चीर दिखाना ही पड़ेगा ,,,कमाल  की पंक्तियाँ वाह !!आपको हार्दिक बधाई आ.आशुतोष जी |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 26, 2015 at 3:33pm

आदरणीय आशुतोष जी

बहुत दिन बाद आपकी  रचना से भेंट हुयी i बड़ी मुकम्मिल रचना है  i

 

ग़ज़लों पे रखिये अपनी यकी आज भी अपनी ---इसमें दो बार अपनी  का प्रयोग खटकता है -- क्या ऐसा चल सकता है --गजलो पे रखिये अपना यकी आज भी उतना ------------------------ सादर i  

Comment by Shyam Narain Verma on February 26, 2015 at 2:15pm
बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई!
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on February 26, 2015 at 2:01pm

जिस दौर में ओंठो पे यकी होता नहीं है

उसमे जिगर भी चीर दिखाना ही पड़ेगा...

सुन्दर!..

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